तेरा वचन मेरे पांव के लिये दीपक, और मेरे मार्ग के लिये उजियाला है। भजन संहिता 119:105
चमकते रहना
Keep Glowing
दूसरों को प्रेरित करने की अपनी क्षमता के लिए जाने जाने वाले एक भाई को एक दिन एक नाराज बहन ने कहा, ‘‘मुझे इन सब प्रेरक बातों पर विश्वास नहीं हैं क्योंकि ऐसा नही होता है’’ एक दूसरा व्यक्ति जो इन बातों को सुन रहा था, उसने उत्तर दिया, ‘‘हम नहाते है और हमेशा एक ही तरह से नहाते है तो क्या नहाना अच्छा नही है।’’
सिर्फ इसलिए कि कोई चीज टिकती नही है उसको दोबारा न करने का कोई औचित्य नही है। लगभग हर चीज को सार्थक रूप से दोहराने की आवश्यकता होती है। अगर हम देखें तो अधिकांश लोग अपने बगीचे की कटाई छटाई करते है और देखभाल करते है जबकि वे जानते है कि उनको दोबारा फिर से ऐसा ही करना पडेगा। इस विषय में एक कहावत भी है कि, ‘‘कोई भी कार्य तभी सार्थक है जब उसको उचित रीति से किया जाता है’’ हम इसको इस तरह से कह सकते है कि, ‘‘कोई भी कार्य सार्थक करने के लिए उसको बार बार करना चाहिये।’’
इसीलिए पौलुस ने भी हमें निर्देश दिये है कि ‘‘सुकर्म में स्थिर रहकर महिमा, और आदर, और अमरता की खोज में रहो।’’ (रोमियों 2:7) प्रभु यीशु मसीह हमें इस आधार पर स्वीकार नही करेंगे कि हमने उनके लिए बहुत अच्छा काम किया है, बल्कि इस पर कि हम प्रतिदिन अच्छा काम करते रहे।
यही कारण है कि हम प्रतिदिन बाईबल पढने के लिए एक व्यवस्थ्ति बाईबल रीडिग चार्ट का प्रयोग करते है। हमें इस बात को महसूस करना चाहिये कि हम एक ऐसे टपकते हुए बर्तन के समान है जिसको यदि हमने परमेश्वर के वचन रूपी तेल से लगातार नही भरते रहे तो हम सूख जायेंगे। और जैसा हमें दृष्टान्त में बताया गया है जब हम दुल्हे का इंतजार कर रहे होंगे तो हमारे दीपक बुझ जायेंगे।
हमें सार्थक कार्य करने के लिए प्रेरित होने की आवश्यकता है और हमें यह बार बार करने की आवश्यकता है। लेखक कहता है कि मुझे याद है जब मैं बाईबल स्कूल से लौटकर आता था तो किस प्रकार सच्चाई और उत्साह से परिपूर्ण होता था और उस उत्साह के साथ काम पर जाता था और ऐसे में मेरे एक सहयोगी ने मेरे इस उत्साह को देखकर कहा, कि मैं बड़ा चमक रहा हूं। कुछ दिनों के बाद जब हम अपने दैनिक कार्यो में व्यस्त हो जाते है तो यह चमक चली जाती है और वही सहयोगी जब कुछ दिनों के बाद मुझे देखता है तो कहता है कि चमक चली गयी है।
इसलिए हमें इस चमक को बनाये रखने की आवश्यकता है और इसके लिए हमें परमेश्वर के वचन की बातों को बार बार सुनने समझाने और सीखने की आवश्यकता है।
‘चमकते रहना ’ (Keep glowing) is taken from ‘Minute Meditations’ by Robert J. Lloyd
राज्य का दृष्टान्त
Parables of the kingdom
यीशु मसीह ने अपनी शिक्षाओंमें, परमेश्वर के राज्य के बहुत से दृष्टान्त दिये। ये साधारण से दृष्टान्त हमें सिखाते है कि परमेश्वर का राज्य कितना मूल्यवान और कितना महत्वपूर्ण है, यह कैसे बढता हैऔर सब लोग इसके लिए आमंत्रित है।
मुख्य पद: मत्ती 18:21-35
क्षमा न करने वाले दास का दृष्टान्त
पतरस ने यीशु से पूछा कि अपने भाई को कितनी बार माफ करना चाहिये। यीशु ने इसका उत्तरस्वर्ग के राज्य की समानता एक ऐसे दास से करके दिया जिसको क्षमा किया गया लेकिन जो दूसरो को क्षमा करने की इच्छा नही रखता था। पतरस और हमारे लिए संदेश बिल्कुल साफ था - कि यदि हम क्षमा नही करेंगे तो परमेश्वर का राज्य के द्वार हमारे लिए बंद हो जायेंगे। अन्य विवरण भी दिया गया है लेकिन यह दृष्टान्त केवल एक मुख्य बिन्दु के लिए दिया गया है।
- किस प्रकार स्वर्ग का राज्य एक ऐसे राजा के समान है जो अपने दासों से लेखा लेना चाहता था?
- क्षमा न करने वाले दास पर लगभग तीन महीने के वेतन का ऋृण था, जो किसी के भी लिए एक बड़ा ऋृण है। वह इतना ऋृणी कैसे हो गया था? क्या हमें कोई भी बड़ा ऋृण रखना चाहिये?
- यह दृष्टान्त हम लोगों से किस प्रकार सम्बन्धित है? उदाहरण के लिए, क्या हम सब पर कोई ऐसा ऋृण है जिसको अदा करना सम्भव नही है? यदि ऐसा है वह कोई सा दास है जिसका हम पर कुछ ऋृण है? अभी यह नही कहा गया है कि राजा का हम पर ऋृण है?
- क्षमा न करने वाले दास को तब तक के लिए जेल में डाल दिया गया जब तक कि वह पूरा ऋृण न चुका दें। क्या वास्तव में उसका ऋृण माफ किया गया? क्षमा करने के लिए क्या जरूरी है?
राज्य क्या है और इसमें कौन लोग आमंत्रित है
यीशु मसीह ने सुनने वालों के लिए अपने संदेश को सुनने और याद रखने में आसान बनाने के लिए बहुत से दृष्टान्त कहें, लेकिन इनको बिना प्रयास के समझाना मुश्किल था। यीशु के लिए परमेश्वर का राज्य कितना महत्वपूर्ण था इसको प्रदर्शित करने के लिए लगभग एक चौथाई दृष्टान्त यीशु ने परमेश्वर के राज्य के विषय में कहें। (मत्ती 13:13-17, मरकुस 4:33-34)
कुछ साधारण सी कहानियों के द्वारा यीशु ने परमेश्वर के इस संदेश को लोगों तक पहुचांया कि परमेश्वर का राज्य दूसरी सभी चीजों से कितना अधिक मूल्यवान है। (मत्ती 13:44-46) यीशु ने उन यहूदियों से बातें की जो यह बात जानते थे कि परमेश्वर ने बहुत पहले इस्राएल को अपना एक विशेष देश और अपना राज्य होने के लिए चुना है। इस्राएल ने परमेश्वर को अपना राजा स्वीकार नही किया और आस पास के दूसरे देशों के समान ही उसने भी अपने लिए उन्ही के बीच से एक राजा बनाना चाहा। यीशु अब आने वाले राज्य के विषय में बातें कर रहे थे, परमेश्वर के राज्य और मसीह के आने की आशा सभी यहूदी रखते थे। इस समय परमेश्वर ने एक अलग तरीके से राज्य को बनाने का तरीका चुना है जो कम दिखाई देगा लेकिन अधिक स्थायी होगा।
यीशु ने राज्य के विषय में दृष्टान्तों के द्वारा बताया और कहा कि जिन्होंने सुसमाचार को सुना वे राज्य में प्रवेश के लिए आमंत्रित है और अन्य जातियां भी इसमें सम्मिलित है (लूका 14:15-24) यह निमन्त्रण बाद में सब लोगों के लिए लागू हो गया क्योंकि जिन लोगों (यहूदीयों) को परमेश्वर ने इसके लिए चुना था उन्होंने निमन्त्रण को स्वीकार नही किया।
राज्य – अब
परमेश्वर के राज्य के विषय में हम ऐसा सोच सकते है कि यह ऐसा है जो कि यहून्ना बपतिस्मादाता के समय से धीरे धीरे बढ़ रहा है। यीशु ने राज्य के विषय में कहा कि यह एक ऐसे बीज के समान है जिसको बोया गया और जो बढते हुए कटाई के लिए तैयार फसल के रूप में बढ जाता है। राज्य के विकास का विवरण देने के लिए यीशु ने आटे में खमीर का उदाहरण भी दिया। (मत्ती 11:12, मरकुस 4:26-29, मत्ती 13:33)
यीशु ने कहा, राई का एक दाना, जो बहुत ही छोटा होता है, यह तब तक बढता जाता है जब तक एक विशाल वृक्ष नही बन जाता और पक्षि उस पर बसेरा करते है। यह भी परमेश्वर के राज्य के विकास का वर्णन प्रस्तुत करता है। आज हम सब इस विकास का हिस्सा बनने के लिए बुलाये गये है।
हमारे लिए परमेश्वर का राज्य अभी शुरू हो जाना चाहिये और अपने आप को उस समय के लिए तैयार करना चाहिये जब यीशु मसीह येरूशलेम में इस जगत के राजा होंगे। यीशु मसीह पहले ही हमारे राजा है। और इस तरह यदि हम यीशु को अपने मार्गदर्शन और अगवाई के लिए चुनते है तो हम आज परमेश्वर के राज्य में है। अपने चरित्र को प्रशिक्षित कर और सुधारकर हम अपने आप को उस राज्य, जो यीशु के आने पर स्थापित होगा, में प्रवेश करने के योग्य बना सकते है।
राज्य – भविष्य में
हालांकि किसी ना किसी रूप में आज भी परमेश्वर का राज्य विद्यमान है, लेकिन पूरी तरह से यह राज्य भविष्य में ही दिखाई देगा। न्याय का एक दृश्य हमें दिया गया है जिसमें कुछ लोगों का इस राज्य में स्वागत होगा और उनको पुरस्कार दिया जायेगा, जबकि कुछ लोगों का को त्यागकर उनको दण्डित किया जायेगा। यीशु ने अपने दृष्टान्तों के द्वारा चेतावनी दी कि परमेश्वर के राज्य में प्रवेश पाने की जो योग्यता है उसका कडाई से पालन किया जायेगा और न्यायी को संतुष्ट किये बिना कोई भी राज्य में प्रवेश नही करने पायेगा। हर एक व्यक्ति को, परमेश्वर और अपने पडोसी से प्रेम दिखाने का समपूर्ण प्रयास करना होगा। (मत्ती 13:24-30, 36-43, 47-50, 25:14-30; लूका 19:11-27, मत्ती 22:1-14; 25:31-46)
राज्य के विषय में एक चेतावनी और दी गयी है कि यह अचानक से आयेगा। (मत्ती 25:1-13) जब आयेगा तो फिर हमारे पास विश्वास को बढाने का समय नही होगा और न ही हमारे पास परमेश्वर को प्रसन्न करने का समय होगा। पॉंच कुवारियां अन्य कार्यो में व्यस्त थी। जब दुल्हा आया और द्वार बन्द हो गया तो उन्होंने अपने अवसर को खो दिया। आज हम जो जीवन जी रहे है वही हम परमेश्वर को दिखा सकते है फिर चाहे हम उसके राज्य में प्रवेश करना चाहे या ना चाहे।
राज्य के दृष्टान्त
बीज बोने वाला | सुसमाचार के लिए प्रतिउत्तर | मत्ती 13:1-8, 18-23; मरकुस 4:3-20; लूका 8:5-15 |
बढने वाला बीज | परमेश्वर बढाता है | मरकुस 4:26-29 |
अनाज और जंगली पौधे | न्याय | मत्ती 13:24-30; 36:43 |
राई का दाना बोया गया | आश्चर्यजनक विकास | मत्ती 13:31-32; मरकुस 4:30-32; लूका 13:18-19 |
खमीर और आटा | विकास | मत्ती 13:33; लूका 13:20-21 |
खेत में खजाना | मूल्य | मत्ती 13:44 |
बहुमूल्य मोती | मूल्य | मत्ती 13:45-46 |
समुद्र में डाला गया जाल | न्याय | मत्ती 13:47-50 |
गृहस्वामी का खजाना | मूल्य | मत्ती 13:52 |
क्षमा न करने वाला दास | क्षमा करने वालों के लिए क्षमा | मत्ती 18:23-35 |
भूस्वामी का मजदूरों को रखना | एक पुरूस्कार | मत्ती 20:1-16 |
पुत्र के विवाह का भोज | सभी आमंत्रित | मत्ती 22:2-14 |
एक बड़ी जेनवार | सभी आमंत्रित | लूका 14:15-24 |
दस कुवारिंयां | तत्परता | मत्ती 25:1-13 |
तोडे देना | प्रयास के लिए पुरूस्कार | मत्ती 25:14-30 |
मुहरें देना | प्रयास के लिए पुरूस्कार | लूका 19:11-27 |
उंट का सुई के नाके में से निकलना | धनी के लिए कठिनाई | मत्ती 19:23-24; मरकुस 10:25; लूका 18:25 |
हाथ हल पर | प्रतिबद्धतता | लूका 9:62 |
सारांश
यीशु ने राज्य के विषय में निम्न संदेश देने के लिए विभिन्न दृष्टान्त दिये:
- परमेश्वर का राज्य दूसरी सभी चीजों, यहां तक कि जीवन से भी, अधिक महत्वपूर्ण है।
- सभी इस राज्य में प्रवेश करने के लिए आमंत्रित है;
- राज्य अभी बढ रहा है, और न्याय (कटाई का समय) आने वाला है;
- हालांकि बहुत से आमंत्रित है, लेकिन चुने हुए बहुत कम है;
- यीशु व्यक्तिगत न्याय करेंगे और जो लोग परमेश्वर के मूल्य को नही जानते उनको परमेश्वर के परिवार से अलग करेंगे।;
- धर्मी लोग अपने प्रभु आनन्द में सदासर्वदा के लिए प्रवेश करेंगे।
‘राज्य का दृष्टान्त’ (Parables of the kingdom) is from ‘The way of life’, edited by Rob J. Hyndman
आत्मा का फल – 5
Fruit of the Spirit – Part 5
आत्मा का
और कोई नही है बल्कि केवल परमेश्वर ही है जो फल दे सकता है। दुनिया का कोई भी फलों की खेती करने वाला किसान सेव या अंगूर नही बना सकता है। वह केवल फलों के विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण कर सकता है और फल के निर्माण के लिए दिये गये परमेश्वर के प्राकृतिक नियमों को क्रियान्वित होने देता है।
इसलिए वास्तिवकता यह है कि सभी प्राकृतिक फल आत्मा के होते है क्योंकि ये परमेश्वर के द्वारा अस्तित्व में लाये जाते है, ना कि किसी मनुष्य के द्वारा। जमीन से निकलने वाली प्रत्येक उपज जो आपके खाने की मेज पर दिखाई देती है उसके निर्माण में परमेश्वर का हाथ है। इसलिए खाने से पहले धन्यवाद देने की एक उत्कृष्ट परम्परा है।
यहां हमारा विषय, पेड़ों और लताओं पर लगने वाला फल नही है। बल्कि हमारा विषय हमारी खाने की मेज पर रखे खाने से कही अधिक महत्वपूर्ण है। ‘‘क्या प्राण भोजन से बढकर नही?’’ (मत्ती 6:25) प्रेरित पौलुस के अनुसार, परमेश्वर की आत्मा के द्वारा लिखा गया है, ‘‘आत्मा का फल प्रेम, आनन्द, मेल, धीरज, और कृपा, भलाई, विश्वास, नम्रता, और संयम है।’’ (गलातियों 5:22-23)
ये फल बहुत ही विशेष है। ये फल चरित्र के सभी गुणों को एक साथ लाता है जो आत्मा के द्वारा एक विश्वासी के हद्वय में उत्पन्न होते है। जिस प्रकार कोई मनुष्य सेव या अंगूर के फलों को नही बना सकता उसी प्रकार कोई भी अपने आप से इन गुणों को उत्पन्न नही कर सकता है। जैसे कि पौलुस भी कहता है, ये ‘आत्मा के’ फल है।
केवल इन गुणों को अपने आप अपनाने से ही ये हमें स्वीकार्य रूप से नही बदलेगा। जैसे कहना है, ‘एक गुण का नाम लो और वो तुम्हारा हो जायेगा!’ हम आत्मा के इन फलों को किसी नये वर्ष के संकल्प के समान नही ले सकते है कि ये हमें मिल जायेंगे। यदि हम ऐसा करते है तो वे फल अधिकांश नये वर्ष के संकल्पों को पूरा करेंगे। इच्छा शक्ति के प्रयासों से इन चीजों को उत्पन्न नही किया जा सकता है। फलों को विकास की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। आप अपने आप से आत्मिक फलों की मांग नही कर सकते है जैसे आप किसी सेब के पेड़ से अधिक फलों की मांग नही कर सकते है। यह आत्मा के फल है, हमारी अपनी इच्छा के फल नही है।
वास्तविक चीज नहीं
मेरा यह भी मानना है कि दुनिया के अच्छे काम, परमेश्वर को प्रसन्न करने में असफल होते है क्योंकि वे आत्मा के फल नही है। दुनिया जो प्रेम, आनन्द, शान्ति, धीरज, संयम, प्रदर्शित करती है वह एक कृत्रिम फल है। इस कृत्रिम फल का दिखावा और इसका प्रभाव कभी-कभी सच्चे विश्वासियों को शर्मसार करता है। यह वास्तविक नही है बल्कि आत्मा के वास्तविक फल की नकल है।
यह कहना थोड़ा कठोर हो सकता है, कि सम्पूर्ण उर्जा और ईमानदारी को ध्यान में रखते हुए; जो कि नि:सन्देह दुनिया के अच्छे कामों में लगती है; लेकिन यदि फलों के सभी गुण किसी एक व्यक्ति में हो और वह इन गुणों के द्वारा परमेश्वर के वचन की अच्छी समझ और उसमें मनन करने के द्वारा प्रसन्न न रहे तो इसको फलों की नकल ही कह सकते है। हालांकि यह स्वीकार करना कठिन है कि हमारे द्वारा अक्सर देखे जाने वाले अच्छे इरादे और ईमानदार चरित्रों को परमेश्वर के द्वारा, उस चरित्र की एक नकल के रूप में देखा जाता है जिसको वह स्वीकार करता है, मेरे लिए इस दृश्य से बचना मुश्किल है।
लेकिन यह सच्चाई कि परमेश्वर को स्वीकार्य एकमात्र चरित्र वह है जो आत्मा के फलों को प्रदर्शित करता है, यह हमें इस बात को समझने में सहायता करता है कि क्यों इतने अच्छे-अच्छे लोग परमेश्वर को अस्वीकार्य है। उनके पास जो भी है वह केवल ऐसा प्रतीत होता है कि वह वही है जो परमेश्वर चाहता है। आप पृथ्वी के सबसे बड़े परोपकारी व्यक्ति हो सकते है लेकिन तो भी परमेश्वर जो चाहता है उसके लिए आपको एक लम्बा रास्ता तय करना है।
आत्मा का फल नही है
हमारे दिमाग में एक बात स्पष्ट होनी चाहिये कि आत्मा के फल है ना कि आत्मा के उपहार। फल बनाने वाले गुणों को पवित्र आत्मा के द्वारा प्रदान नही किया जाता है। विश्वासियों को कभी भी आत्मा के फल प्रदान नही किये गये जबकि उनको एक बार आत्मा के उपहार दिये गये। यदि ऐसा हुआ होता तो यह विश्वासियों की उस परख को अर्थहीन कर देता, क्योंकि इस परख का उद्देश्य इन गुणों को अपने चरित्र में स्थापित करना है।
ऐसा मानना कि पवित्र आत्मा के द्वारा किसी का चरित्र अचानक से चमत्कारिक रूप से (संभवत: बपतिस्में के समय या उसके तुरन्त बाद) परिवर्तित हो जाता है, यह बाईबल के नये नियम की सभी चेतावनियों और संदेशों के अनुसार नही है।
किसी भी दिव्यशक्ति के द्वारा परिवर्तित चरित्र को यह बताने की आवश्यकता नही होती कि उसको क्या करना है और क्या नही करना है, यह स्वभाविक रूप से ही आ जाती है। यदि ऐसा होता तो कोई भी सत्य को कभी नही छोड़ता। यह धारणा कि परमेश्वर हमें धार्मिक बनाने के लिए हमारे चरित्र को पुन: सुधारता है यह मसीहियों के अनुभव से प्रमाणित नही होती (अर्थात ऐसा नही होता है) बल्कि यह उसके भी विपरीत है जिस प्रकार परमेश्वर ने ऐतिहासिक रूप से हमारे साथ व्यवहार किया है। परमेश्वर हमारी मुक्त इच्छा से हमारा प्रतिउत्तर चाहता है। और प्रेम, जो कि आत्मा का पहला फल है, इसको किसी के भीतर प्रोग्राम करना असम्भव है।
आप इस बात को इस प्रकार समझ सकते है, जब आप अपने कम्पयूटर को यह कहने के लिए प्रोग्राम करते है कि, ‘मैं आपसे प्यार करता हूं’ तो आपको शीघ्र पता चलता है कि इस प्रोग्राम का प्रतिउत्तर सन्तोषजनक से कम है। क्या आप वास्तव में मानते है कि कम्पयूटर आपसे प्रेम करता है? निश्चित रूप से कम्पयूटर आपसे प्रेम नही करता है।
आत्मा का फल हमारे स्वंय के प्रयासों और इरादों की परवाह किए बिना हमें बदलने के लिए आत्मा का उपहार नही था। यहां तक कि वे शक्तियां जो आत्मा का उपहार थी, उन्होंने पहली सदी के विश्वासियों को धर्मी नही बनाया। उन्हें अभी भी समस्याऐं थी और वे असफल भी रहे।
फल आत्मा के है क्योंकि...
इसलिए यदि यह पवित्र आत्मा का उपहार नही है तो किस प्रकार फल को आत्मा के फल के रूप में समझा जाए? यह आत्मा का है क्योंकि यह आत्मा शब्द के प्रभाव से उत्पन्न होता है। शायद नये नियम के कुछ वाक्यांश इस बात को समझने में सहायक होंगे।
‘आत्मा का फल’ | गलातियों 5:22 |
‘आत्मा की मनसा’ | रोमियों 8:27 |
‘आत्मा पर मन लगाना’ | रोमियों 8:6 |
‘आत्मा की बातों पर मन लगाना’ | रोमियों 8:5 |
‘मसीह का मन’ | 1 कुरिन्थियों 2:16, फिलिप्पियों 2:5 |
‘मसीह का आत्मा’ | रोमियों 8:9 |
‘जीवन की आत्मा की व्यवस्था ने मसीह यीशु में’ | रोमियों 8:2 |
‘आत्मा के अनुसार चलो’ | गलातियों 5:16 |
इन सभी वाक्याशों में एक ही बात बतायी गयी है। ये सभी एक मन का उल्लेख करते है जिस पर आत्मिक सोच का अधिकार है, एक ऐसा मन जिस पर आत्मा शब्द का प्रभाव है और जो शारीरिक सोच का विरोध करती है। इनमें से कोई भी वाक्यांश मन पर पवित्र आत्मा के सीधे प्रभाव को नही बताता है। जीवन में आत्मा के द्वारा चलना अध्यात्मिक मार्ग को ले जाता है न कि स्वंय की प्रभुता वाले शारीरिक मार्ग को। आत्मा के अनुसार चलने वाला मन आत्मा शब्द से प्रभावित और निर्देशित होता है।
इन सभी मामलों में आत्मा का उपयोग शरीर के विपरीत किया जाता है। परमेश्वर की आत्मा का मार्ग हमारे प्राकृतिक झुकाव के विपरीत है। उपर बताये गये अधिकांश वाक्यांश रोमियों की पुस्तक के 8वें अध्याय से लिये गये है यदि आप उस अध्याय को ध्यान से देखेंगे तो आप देखेंगे कि इस अध्याय का विषय आत्मा और शरीर का प्रतिपक्षवाद है। गलातियों की पुस्तक के 5वें अध्याय में भी यही बात है जहां आत्मा के फल शरीर के कामों के विपरीत है।
यदि हम रोमियों के 8वें अध्याय के आत्मा शब्द का अर्थ पवित्र आत्मा का सीधा प्रभाव मानते है तो फिर हमारी पहले बतायी गयी सभी बातें अर्थहीन हो जाती है। हमारे पास एक ऐसी स्थिति है जहां पवित्र आत्मा लोगों को धार्मिक बनाती है। क्योंकि पद 13 में पौलुस लिखता है, ‘क्योंकि यदि तुम शरीर के अनुसार दिन काटोगे, तो मरोगे, यदि आत्मा से देह की क्रियाओं को मारोगे, तो जीवित रहोगे’ पवित्र आत्मा ने शरीर के कामों (शारीरिक कार्य) को रोककर विश्वासियों को धार्मिक नही बनाया; विश्वासियों को स्वंय आत्मा के द्वारा ऐसा करने के लिए कहा गया था- ऐसा आत्मिक मन रखने के द्वारा होता है। यह उन्होंने आत्मिक वचन के द्वारा आनन्दित और मनन करने के द्वारा पूरा किया ना कि पवित्र आत्मा के किसी उपहार के द्वारा।
मसीह का मन
उपर बताये गये वाक्यांशों में एक विशेष रूचिकर बात है, ‘मसीह का मन’ इसमें कोई संदेह नही कि मसीह ने सिद्धता के लिए आत्मा के फलों का प्रदर्शन किया। मसीह का मन रखने का अर्थ है कि इसके सभी पहलुओं में आत्मा के फलों को रखना। इस बात को प्रमाणित करना शायद ही जरूरी लगता है, लेकिन तो भी यहां कुछ प्रमाण है, ये सभी मसीह के संदर्भ में है:
‘...जैसा मैने तुम से प्रेम रखा, वैसा ही तुम भी एक दूसरे से प्रेम रखो’ | यूहन्ना 15:12 |
‘...मेरा आनन्द तुम में बना रहे’ | यूहन्ना 15:11 |
‘...अपनी शान्ति तुम्हें देता हूं...’ | यूहन्ना 14:27 |
‘...यीशु मसीह अपनी पूरी सहनशीलता दिखाए’ | 1 तिमुथियुस 1:16 |
‘...प्रभु की कृपा’ | 1 पतरस 2:3 |
‘क्या कोई अच्छी वस्तु भी नासरत से निकल सकती है?...’ | यूहन्ना 1:46 |
‘...मसीह यीशु अपने नियुक्त करने वाले के लिए विश्वासयोग्य था’ | इब्रानियों 3:2 |
‘...मसीह की नम्रता और कोमलता के द्वारा’ | 2 कुरिन्थियों 10:1 |
‘हर एक पहलवान सब प्रकार का संयम करता है’ | 1 कुरिन्थियों 9:25 |
इसे एक कदम आगे बढाते हुए यह याद रखना होगा कि परमेश्वर प्रेम है। (1 यूहन्ना 4:16) परमेश्वर इस प्रेम का जनक और प्रतीक है। और यीशु पुत्र, पित का आत्मिक प्रतिरूप है। (इब्रानियों 1:3) मसीह का मन, पिता के मन का एक सच्चा प्रतिरूप है।
पिता का मन उसके वचन के द्वारा प्रगट होता है। यीशु ने पिता के वचन में इसे पाया, और शारीरिक मन के बहिष्कार के लिए, उसमें प्रसन्न होकर दिन-रात उसका ध्यान किया। प्रभु यीशु मसीह ने परमेश्वर के साथ एक ऐसी एक समानता प्राप्त की जो न उसके पहले ना उसके बाद किसी मनुष्य ने की। इसीलिए प्रभु यीशु मसीह हमेशा ऐसा कहा कि, ‘जैसा पवित्रशास्त्र में आया है’, ‘तू कैसे पढता है?’ या ‘क्या तुम ने पवित्र शास्त्र में यह वचन नही पढ़ा...?’ प्रभु यीशु मसीह अपने पिता के साथ इस प्रकार एक मन थे कि वे कह सके कि मैं और पिता एक है।
हमारा लक्ष्य भी यही है कि हम भी अपने आप को पिता के साथ इसी प्रकार एक मन बना सके। और इस कार्य में हम जिस स्तर पर आत्मा शब्द को अपने आप पर लागू करेंगे हमें उतनी ही सफलता मिलेगी। इस दुनिया में केवल पवित्रशास्त्र (बाईबल) ही एक मात्र ऐसा स्थान है जहां परमेश्वर का मन और उसके बाद मसीह को दिखाया गया है। परमेश्वर के वचन में आनन्दित रहने और ध्यान लगाने से हममें धीरे धीरे अप्रत्यक्ष रूप से आत्मा के फलों का उत्पादन होगा, यह कार्य कोई भी इच्छा शक्ति नही कर सकती है। फलों को हम नही बुला सकते है बल्कि यह अपने अच्छे समय में अपने आप बढ़ते है। हम फलों को आने के लिए मजबूर नही कर सकते है। लेकिन हम उन फलों के बढने के लिए अनुकूल परिस्थितियां पैदा कर सकते है (जैसे कि एक अच्छा किसान करता है), और फिर परमेश्वर के द्वारा स्थापित प्राकृतिक नियमों के अनुसार उन फलों को आने देते है।
यह प्रत्यक्ष रूप से हम पर कार्य करने वाली पवित्र आत्मा का काम नही है, बल्कि परमेश्वर के मन और एक ग्रहणशील हद्वय को, एक निरन्तर में, एक साथ लाने से ऐसा होता है। आत्मा के फल के उत्पादन के लिए ये एकमात्र अनुकूल परिस्थितियां है।
This is section 5 from ‘The fruit of the Spirit’, by Colin Attridge
पवित्र आत्मा क्या है?
What is the Holy Spirit?
आत्मा का वास्तविक अर्थ श्वांस या हवा है। ‘‘पवित्र आत्मा’’ या कभी-कभी कहते है कि ‘‘परमेश्वर कि आत्मा’’, परमेश्वर की सामर्थ को वर्णित करने का एक तरीका है।
परमेश्वर ने अपनी आत्मा के द्वारा ही ये दुनिया बनायी है। अपनी आत्मा के द्वारा ही परमेश्वर ने प्रभु यीशु मसीह को पैदा किया। अपनी आत्मा के द्वारा ही परमेश्वर ने भविष्यद्वक्ताओं और प्रेरितों को पवित्र शास्त्र लिखने के लिए प्रेरित किया। अपनी आत्मा के द्वारा ही परमेश्वर हर जगह विद्यमान है, और उसी के द्वारा वह हमारे सारे कामों को, हमारे विचारों को और हमारी बातों को जानता है। अपनी आत्मा के द्वारा ही परमेश्वर, प्रभु यीशु मसीह के पुन: आगमन पर, मृतकों को जीवित करेगा।
परमेश्वर की यह सामर्थ ‘‘आत्मा’’ जब परमेश्वर के विशेष कार्य के लिए प्रयोग की जाती है, तो ‘‘पवित्र’’ कहलाती है। (लूका 1:35, 24:49; प्रेरितों के काम 1:8; उत्पत्ति 1:2; अय्यूब 33:4; भजन संहिता 104:30; यिर्मयाह 32:17; 2 पतरस 1:21; भजन संहिता 139:1-14; रोमियों 8:11; प्रेरितों के काम 7:51)
अधिकांश नये नियम में ‘‘आत्मा’’ शब्द, शरीर और आत्मा के बीच होने वाले द्वन्द्व के लिए सांकेतिक रूप में प्रयोग किया गया है। ये केवल मसीह में ‘‘नये मनुष्यत्व’’ और आदम में ‘‘पुराने मनुष्यत्व’’ के लिए प्रयोग किया जाता है। (रोमियों 8:5-7; इफिसियों 4:20-24)
पवित्र आत्मा का दान क्या है?
What are the gifts of the Holy Spirit?
पवित्र आत्मा का दान परमेश्वर द्वारा, अपने कुछ दासों को दी जाने वाली उसकी विशेष सामर्थ है, जो उसने प्रेरितों के तुरन्त बाद अपने दासों को दी। इस सामर्थ के द्वारा ही कुछ चुने हुए लोगों ने, परमेश्वर के वचन को बोला और उसको लिखा, और दूसरे चमत्कार भी किये। प्रेरितायी, भविष्यवाणी, चंगाई और अन्य-अन्य भाषायें, पवित्र आत्मा के दान थे। (ऐसा कहा जाता है कि ये लोग बिना सीखे ही दूसरी भाषायें बोलते थे) कलीसिया को इन दानों के द्वारा, असाधारण कठिनाईयों में बडी सहायता मिली। इन दानों के द्वारा ही सुसमाचार दूर-दूर तक फैलना सम्भव हुआ। यह दो तरह से सम्भव हुआ। एक तो पुराने मसीही प्रचारक अन्य अन्य भाषायें बोलने में समर्थ हो पाये। दूसरे वे अपने सन्देश को चमत्कारों के द्वारा प्रमाणित कर पाये। इन दानो की सहायता से ही मसीही कलीसिया स्थापित की गयी और नये नियम को लिखना सम्भव हुआ। (प्रेरितों के काम 2:1-17; योएल 2:28-29; 1 कुरिन्थियों 12:7-11; रोमियों 15:18-19)
This is part of section 13 from the booklet ‘Bible Q&A’.
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