तेरा वचन मेरे पांव के लिये दीपक, और मेरे मार्ग के लिये उजियाला है। भजन संहिता 119:105
सोच (Thinking)
अमेरिकी उद्योगपति और फार्ड मोटर कम्पनी के संस्थापक हेनरी फार्ड ने एक बार कहा, "यदि आप इस बात पर विचार करते है कि आप किसी काम को कर सकते है या नही कर सकते है, तो आप बिल्कुल सही करते है।"
यह कहावत इतनी छोटी है कि शुरू होने से पहले ही खत्म हो जाती है लेकिन फिर भी इससे मिलने वाली शिक्षा बहुत ही बड़ी है। यह कहावत प्रभु यीशु मसीह के शब्दों से बिल्कुल मेल खाती जब उन्होंने कहा कि, "विश्वास करने वाले के लिए सबकुछ हो सकता है।" (मरकुस 9:23)
जितने भी महान कार्य हुए है वे पहले केवल एक विचार ही थे। जिस तरीके से हम सोचते है उससे यह निर्धारित होता है कि हम क्या है और इसीलिए सुलेमान ने भी कहा कि, "क्योंकि जैसा मनुष्य अपने मन में विचार करता है, वैसा वह आप है।" (नीतिवचन 23:7)
हमारी सोच ही हमारा निर्माण करती है। आज लोगों में नकारात्मक विचार बहुत ही अधिक है। आज अस्पताल ऐसे लोगों से भरे हुए है जिनकी सोच सही ना होने कारण वे हार मान गये है। सफल होने के लिए, खुश रहने के लिए, अपने को ईश्वर की पसन्द के योग्य बनाने के लिए, हमें सकारात्मक सोचना चाहिए।
यीशु मसीह ने हमें विश्वास के लिए सोचना सिखाया। उन्होंने कहा, "और जो कुछ तुम प्रार्थना में विश्वास से माँगोगे वह सब तुम को मिलेगा।" (मत्ती 21:22) उन्होंने अपने चेलों से कहा कि यदि तुम्हारा विश्वास राई के दानें के बराबर है तो तुम पहाड़ो को हटा सकते हो।जब पतरस डूब रहा था तो उन्होंने उसको डाँटा क्योंकि उसने कहा कि हवा तेज है और वह डर गया। यीशु ने कहा, "हे अल्पविश्वासी, तू ने क्यों सन्देह किया?" (मत्ती 14:31) पतरस ने जब यह सोचा कि वह पानी पर चल सकता है तो वह पानी पर चलने लगा लेकिन जब उसने चारों ओर देखा और सन्देह किया तो वह डूब गया।
यदि हम ईश्वर पर विश्वास करेंगे और यह विश्वास करेंगे कि जो वायदें उसने किए है वह उनको पूरा करेगा तो हम भी जीवन के तूफानी समुद्र के ऊपर चल सकते है। यदि हम सन्देह करना शुरू कर देते है तो समस्याओं की लहर हमें गिरा देगी और हम डूब जायेंगे। हमें डूबने से बचाने के लिए पौलुस हमसे कहता है कि अपने मस्तिष्क में सकारात्मक सोच रखें। पौलुस हमसे कहता है कि, "इसलिए हे भाईयों, जो जो बातें सत्य हैं, और जो जो बातें आदरणीय हैं, और जो जो बातें उचित हैं, और जो जो बातें पवित्र हैं, और जो जो बातें सुहावनी हैं, और जो जो बातें मनभावनी हैं, अर्थात जो भी सदगुण और प्रशंसा की बातें हैं उन पर ध्यान लगाया करो।" (फिलिप्पियों 4:8)
हम यदि केवल यह याद रखें कि जैसा हम सोचते है हम वैसे ही है, और जो विश्वास करता है उसके लिए सब कुछ सम्भव है, और विश्वास से प्रार्थना में हम जो कुछ मागेंगे वह हमें मिल जायेगा, तो हमारा विश्वास इतना मजबूत होगा जिससे परमेश्वर प्रसन्न होता है और हमारे जीवन के सभी दिनों में हम पर दया और करूणा बनी रहेगी और हम सदा सर्वदा के लिए प्रभु के घर में बसने पायेंगे। इसलिए याद रखिए कि, "यदि आप किसी कार्य के विषय में ये सोचते है कि आप उसे कर सकते या यह कि आप उसे नही कर सकते है तो आप सही करते है!"
‘सोच’ (Thinking) is taken from ‘Minute Meditations’ by Robert J. Lloyd
सृष्टि (Creation)
ईश्वर की बनायी हुयी यह सृष्टि उसकी सामर्थ और उसकी बुद्धि की महानता को प्रमाणित करती है। हालांकि आधुनिक विज्ञान इस सृष्टि से इन्कार करता है और इस बात को मानता है कि जीवन की उत्पति विकास से हुयी है। विज्ञान और बाईबल में वर्णित सृष्टि को हम किस प्रकार मिलाते है? यहां हम इसी विषय में बातें करेंगे।
मुख्य पद: उत्पत्ति अध्याय 1
“आदि में परमेश्वर ने आकाश और पृथ्वी को बनाया।”
इन तेजस्वी शब्दों के साथ उत्पत्ति में सृष्टि का प्रारम्भ होता है। हमें बिल्कुल साधारण भाषा में बताया गया है कि ईश्वर ने इस ब्रहमाण्ड और सभी प्रकार के पेड्-पौधे और जानवरों की रचना क्रमानुसार तरीके से की और अन्त में मनुष्यों को बनाया।
प्रश्नोत्तरी
उत्पत्ति के पहले अध्याय को पढ़े और अपनी बाईबल को प्रयोग किये बिना निम्न लिखित प्रश्नों के उत्तर दें।
- मनुष्यों के लिए क्या भोजन निश्चित किया गया था?
- ईश्वर के कार्यो में से क्या कोई एक ऐसा है जिसकी विशेष सराहना की गयी हो?
- सूर्य, चन्द्रमा और तारों के नामों का परिचय किस प्रकार दिया गया?
- क्या प्रत्येक दिन के विषय में यह कहा गया कि "ईश्वर ने देखा यह अच्छा था"?
- सृष्टि के किस भाग पर मनुष्य का स्वामित्व है?
- क्या हव्वा के विषय में बताया गया है?
- तीसरे दिन किन पौधो को बनाया गया?
- जानवरों, मछली, पक्षीयों और रेंगने वाले जन्तुओं को खाने के विषय में क्या कहा गया?
- पृथ्वी के विषय में क्या कहा गया कि वह सबसे पहले क्या उगाये?
- पहले दिन से ही सांझ और सुबह थे तो चाँद, सूरज और तारों को चौथे दिन कैसे बनाया?
अब अपने उत्तरों की जांच बाईबल से करें।
उत्पत्ति के पहले अध्याय में सृष्टि की रचना के दिनों में हम एक विशेष प्रतिरूप पाते है:
उजियाला | 1. उजियाला | 4. सूर्य, चन्द्रमा और तारें |
जल और वायु | 2. समुद्र और आकाश | 5. जल जन्तु और पक्षी |
सूखी भूमि | 3. सूखी भूमि और पेड़ पौधे | 6. जानवर और मनुष्य |
इस प्रतिरूप से यह याद रखना आसान हो जाता है कि किस दिन क्या चीज बनायी गयी।
विकास क्या है?
यह जीवन के विभिन्न रूपों की वर्तमान वैज्ञानिक व्याख्या है कि जीवन की उत्पत्ति प्रकृति के अनुसार धीरे-धीरे परिवर्तित होकर हुयी। यदि हम तुलना करें तो बाईबल बताती है कि ईश्वर ने हर प्रकार के जानवर और पौधो की रचना की – ऐसा नही था कि उसने उनको प्राकृतिक रूप से विकसित होने के लिए ऐसे ही छोड़ दिया था।
विकास के सिद्धान्त पर कई वैज्ञानिक आपत्तियां भी है।
- जीवित चीजों के कुछ भाग इतने जटिल है कि उनका विकास ऐसे ही धीरे-धीरे नही हो सकता। वे जैसा कार्य करते है उनकी रूपरेखा ऐसा कार्य करने के लिए ही बनायी गयी है। यहां तक कि चार्ल्स डारविन को भी अपने सिद्धान्त के विषय में इस समस्या का सामना करना पड़ा। (चार्ल्स डारविन एक अंग्रेज प्रकृतिवादी थे और आधुनिक विकास के पिता माने जाते है।)
"यदि यह प्रमाणित हो गया कि किसी भी जटिल अंग की उत्पत्ति थोड़े-थोड़े सतत परिवर्तन के द्वारा नही हो सकती है तो मेरा विकास के द्वारा जीवन का यह सिद्धान्त पूर्णतया असफल होगा।" (On the Origin of Species, Charles Darwin, 1859, London: Ward Lock & Co., pp. 152-153.)
हम यदि उदाहरण के लिए अपनी आँख को ले तो इसके अच्छी तरह कार्य करने के लिए यह आवश्यक है कि इसका हर एक भाग आपस में सही ताल मेल से कार्य करें। इसका विकास नही हो सकता था यदि यह अपने विकास के मध्य समय के दौरान कार्य नही करती थी। ईश्वर ने एक ऐसे आश्चर्यजनक अंग की रचना की जिसके द्वारा हम देख सकते है।
"मैं तेरा धन्यवाद करूँगा, इसलिए कि मैं भयानक और अद्भुत रीति से रचा गया हूँ। तेरे काम तो आश्चर्य के है, और मैं इसे भली भाँति जानता हूँ।" (भजन संहिता 139:14)
- यदि विकास का सिद्धान्त सही है तो आज भी बहुत सी जातियां अपने विकास के मध्य में होनी चाहिये थी, लेकिन जीवाश्म से सम्बन्धित लिखित प्रमाण प्रजातियों में ऐसा किसी धीमें विकास के विषय में नही बताते है। डा॰ कोलिन पेटरसन, जो प्राकृतिक इतिहास के ब्रिटिश संग्राहलय में वरिष्ठ जीवाश्म विज्ञानी है, ने लिखा कि, मैं एक बात बहुत ही स्पष्ट करना चाहूंगा कि एक भी जीवाश्म (संक्रमणकालीन) ऐसा नही है जिसके विषय में कोई निर्विवाद तर्क दे सके। दूसरे शब्दों में, बहुत सी "कड़िया लापता" है।
इन्ही वैज्ञानिक आपत्तियों के चलते कुछ वैज्ञानिको ने विकास के इस सिद्धान्त को अस्वीकार कर दिया। जबकि बहुत से विकास के इसी सिद्धान्त से सिर्फ इसलिए चिपके हुए है क्योंकि उन्हें सृष्टि का दूसरा विकल्प स्वीकार नही है। ब्रिटिश वैज्ञानिक सर आर्थर कीथ ने कहा कि, "विकास अप्रमाणित है और उसको प्रमाणित नही किया जा सकता है। हम इस पर केवल इसलिए विश्वास करते है क्योंकि इसका एक मात्र विकल्प विशेष सृष्टि है जो कल्पना से परे है।"
कुछ ऐसे पद जो सृष्टि निर्माण के विषय में बताते है
उत्पत्ति | 1:1,7,16,21,25, | भजन संहिता | 8:3;33:6; | मलाकी | 2:10 |
27,31;2:1-4,9, | 96:5; 102:25; | मत्ती | 19:4 | ||
22;3:1;5:1-2; | 104:2,30; | मरकुस | 13:19 | ||
6:7; 7:4; 9:6 | 136:5; 148:5 | यूहन्ना | 1:3,10 | ||
निर्गमन | 20:11; 31:17 | नीतिवचन | 3:19; 8:27 | प्रेरितों के काम | 4:24 |
व्यवस्थाविवरण | 4:32 | सभोपदेशक | 3:11 | रोमियों | 1:20,25 |
2 राजाओं | 19:15 | यशायाह | 40:26;41:20; | 1 कुरिन्थियों | 11:9 |
1 इतिहास | 16:26 | 42:5; 43:1,7; | इफिसियों | 3:9 | |
2 इतिहास | 2:12 | 45:8,12,18; | 1 तीमुथियुस | 4:3 | |
नहेम्याह | 9:6 | 48:13 | इब्रानियों | 1:2,10 | |
अय्यूब | 9:8; 26:13 | यिर्मयाह | 10:12 | 2 पतरस | 3:5 |
योना | 1:9 | प्रकाशितवाक्य | 4:11; 10:6 |
बाईबल शुरू से लेकर अन्त तक, मूसा के द्वारा लिखी गयी पुस्तकों से लेकर यीशु मसीह और प्रेरितों के प्रचार करने तक, सृष्टि के विषय में सीखाती है।
सृष्टि के साक्ष्य
ईश्वर की रचना शानदार है। ईश्वर के हाथ की दस्तकारी को देखने के लिए हमें केवल इस संसार की कुछ प्राकृतिक सुन्दरताओं को देखने की आवश्यकता है।
"हे यहोवा, तेरे काम अनगिनित है! इन सब वस्तुओं को तू ने बुद्धि से बनाया है: पृथ्वी तेरी सम्पत्ति से परिपूर्ण है।" (भजन संहिता 104:24)
आकाश के विषय में बताया गया है कि यह ईश्वर की महिमा का "वर्णन" करता है।
"आकाश परमेश्वर की महिमा का वर्णन कर रहा है; और आकाशमण्डल उसकी हस्तकला को प्रगट कर रहा है। दिन से दिन बातें करता है, और रात को रात ज्ञान सिखाती है। न तो कोई बोली है और न कोई भाषा जहाँ उनका शब्द सुनाई नहीं देता है। उनका स्वर सारी पृथ्वी पर गूँज गया है, और उनके वचन जगत की छोर तक पहुँच गए है।" (भजन संहिता 19:1-4)
ईश्वर की सामर्थ उसकी सृष्टि में स्पष्टता से देखी जा सकती है और पौलुस ने इसके विषय में वर्णन किया है कि लोगों के लिए र्इश्वर में विश्वास करने के लिए यह पर्याप्त साक्षी है।
"उसके अनदेखे गुण, अर्थात उसकी सनातन सामर्थ्य और परमेश्वरत्व, जगत की सृष्टि के समय से उसके कामों के द्वारा देखने में आते है, यहाँ तक कि वे निरूत्तर है।" (रोमियों 1:20)
सृष्टि कब हुयी?
जब ईश्वर ने कहा, "आदि में...", उसने हमें यह नही बताया कि यह आदि कब थी और न ही यह कि इस आदि से पहले क्या था। हालांकि पवित्र शास्त्र में पर्याप्त सूचना है जिसके द्वारा हम उस समय की बहुत ही निकट गणना कर सकते है कि आदम की सृष्टि कब हुयी। यह गणना हम उत्पत्ति के 5 और 11 अध्याय में दी गयी वशांवली की सूचि से कर सकते है, हम आदम और अब्राहम के बीच के वर्षो की गणना कर सकते है जो लगभग 2000 है। अब्राहम 2000 ई.पू. हुआ और इस हिसाब से आदम 4000 ई.पू. हुआ।
दूसरी ओर वैज्ञानिक के अनुसार जिन्होंने पृथ्वी और इसके जीवाश्मों की आयु का पता लगाने का प्रयास किया उनका मानना है कि पृथ्वी 4.5 अरब साल पुरानी है और इस पर जीवन किसी न किसी रूप में कई करोड़ो साल से है। जब हम पृथ्वी की इस उम्र की तुलना उत्पत्ति के पहले अध्याय में दिये गये आदम को रचने के समय से करते है तो इस अध्याय को समझने में कुछ समस्या आती है।
उत्पत्ति 1 अध्याय और पृथ्वी की आयु
पृथ्वी की उम्र के वैज्ञानिक प्रमाणों को उत्पत्ति के 1 अध्याय से मिलाने का प्रयास कई बार किया गया है। उनमें से जो मुख्य व्याख्यायें है वह नीचे दी गयी है।
- पुन: सृष्टि
ऐसा बताया गया है कि ब्रहमाण्ड की रचना आदि में हुयी (उत्पत्ति 1:1), लेकिन परमेश्वर ने पृथ्वी को साफ कर दिया और यह "सुनसान और बेड़ोल" पड़ी थी (उत्पत्ति 1:2) और फिर नये सिरे से सृष्टि हुयी। (उत्पत्ति 1:3-31) - आयु का आभास
कभी-कभी इस बात पर भी बहस होती है कि जिस प्रकार आदम की सृष्टि एक प्रौढ़ मनुष्य के रूप में हुयी वैसे ही ब्रहमाण्ड की रचना भी ऐसे की गयी कि यह पुराना दिखाई दें। - वैज्ञानिक गलत है
जिनकी ऐसी धारणा है वे लोग इस बात पर बहस करते है कि वैज्ञानिकों ने प्रमाणों से पृथ्वी की आयु का गलत अनुमान लगाया है। इसके बजाये वे कहते है कि ब्रहमाण्ड केवल 6000 वर्षो पुराना है। - दिनों का समयकाल अधिक था
इस धारणा के अनुसार यह माना जाता है कि उस समय के दिन 24 घण्टे से अधिक लम्बे थे। - प्रकाशन के दिन
इस व्याख्या के अनुसार उत्पत्ति के 1 अध्याय में मूसा या कुछ पहले भविष्यद्वक्ताओं के द्वारा देखें गये सात दिनों के सपने का वर्णन है जबकि सृष्टि करने में उससे कही अधिक लम्बा समय लगा। - दिव्य आज्ञा के दिन
इस व्याख्या के अनुसार ये दिन वास्तव में वे लगातार दिन है जिनमें परमेश्वर ने कहा कि सृष्टि कैसे होगी। और फिर करोड़ो साल से भी अधिक समय में, जैसा परमेश्वर ने जैसा आदेश दिया उसी के अनुसार धीरे-धीरे सृष्टि की। - एक नाटक
कुछ लोगों का मानना है कि उत्पत्ति का पहला अध्याय, जो कुछ हुआ उसका, नाटकीय प्रदर्शन है। उत्पत्ति में बहुत ही जटिल घटनाओं की श्रंखला को, छ: दिन के थोड़े समय में, नाटक के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
विचारणीय पद
- उत्पत्ति के पहले अध्याय के विषय में ऊपर दी गयी विभिन्न व्याख्याओं पर विचार कीजिए। प्रत्येक व्याख्या की प्रबलता और उसकी कमजोरी पर विचार विमर्श कीजिए। आपके विचार से कौन सी व्याख्या सही है?
- कुछ लोग ऐसा दावा करते है कि उत्पत्ति के 2 अध्याय में वर्णित सृष्टि का क्रम मनुष्य – पौधे – जानवर – पक्षी है जो उत्पत्ति के 1 अध्याय से भिन्न है। इस आपत्ति के विषय में आप क्या कहेंगे?
- क्या यह सम्भव है कि परमेश्वर ने अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए जीवन की सृष्टि एक सतत विकास के रूप में की?
अन्य खोज
- कुछ लोगों का मानना है कि उत्पत्ति एक काल्पनिक कथा है। तो भी यीशु मसीह ने स्वंय उत्पत्ति की बहुत सी घटनाओं को ऐतिहासिक कहकर सम्बोधित किया है। ऐसे अधिक से अधिक पदों को खोजिये जिनमें यीशु मसीह ने उत्पत्ति का सन्दर्भ दिया।
- सृष्टि निर्माण का दूसरा तर्क "सहजीवी सम्बन्ध" की घटना है – जिसके अनुसार दो जानवर या पौधे अपने अस्तित्व के लिए एक दूसरे पर निर्भर रहते है। सहजीवी सम्बन्ध का एक उदाहरण खोजिए और लिखिए कि यह कैसे कार्य करता है।
‘सृष्टि’ (Creation) is from ‘The Way of Life’, edited by Rob J. Hyndman
आप विधान को बदल सकते है – 1 (You Can Change Providence – 1)
"जिस प्रकार यरूशलेम के चारों ओर पहाड़ है, उसी प्रकार यहोवा अपनी प्रजा के चारों ओर अब से लेकर सर्वदा तक बना रहेगा।" (भजन संहिता 125:2)
इस पद में ध्यान देने योग्य जो शब्द है वह यह है कि – "अपनी प्रजा के चारों ओर"
एक सामान्य विवेक से ईश्वर इस सृष्टि की देखभाल करता है। आरम्भ में ही उसने पृथ्वी की हर एक आवश्यकता की हर चीज की सृष्टि कर दी थी।
"इन सब को तेरा ही आसरा है, कि तू उनका आहार समय पर दिया करें।" (भजन संहिता 104:27)
यहां सम्पूर्ण पृथ्वी के लिए प्रबन्ध है। क्योंकि परमेश्वर का अस्तित्व है इसलिए सम्पूर्ण सृष्टि का अस्तित्व है । प्रेरितों के काम 17:28, "क्योंकि हम उसी में जीवित रहते, और चलते-फिरते, और स्थिर रहते है"; और इसलिए हम पढ़ते है कि:
"यदि वह (परमेश्वर) मनुष्य से अपना मन हटाये और अपना आत्मा और श्वास अपने ही में समेट ले, तो सब देहधारी एक संग नष्ट हो जाएँगे, और मनुष्य फिर मिट्टी में मिल जाएगा।" (अय्यूब 34:14-15)
लेकिन इसके बावजूद भी एक ऐसा विधान है जिसको प्राकृतिक कह सकते है – परमेश्वर ने एक योजना स्थापित की है जिसके अन्तर्गत सब चीजें प्रदान की जाती है – एक विशेष संवेदन है जिसके द्वारा ईश्वर "अपने लोगों के चारों ओर" विद्यमान रहता है। यहां विशेष ध्यान देने योग्य बात है 'उसके लोग'। हम कैसे 'उसके लोग' बन सकते है और हम किस प्रकार ईश्वर के साथ अपना यह विशेष सम्बन्ध बना सकते है?
"जितने यहोवा को पुकारते हैं, अर्थात् जितने उसको सच्चाई से पुकारते हैं, उन सभों के वह निकट रहता है। वह अपने डरवैयों की इच्छा पूरी करता है, और उनकी दोहाई सुनकर उनका उद्धार करता है। यहोवा अपने सब प्रेमियों की तो रक्षा करता, परन्तु सब दुष्टों का सत्यानाश करता है।" (भजन संहिता 145:18-20)
इन पदों में ईश्वर की यह विशेष देखभाल प्राप्त करने के तीन तरीके दिये गये है:
- उसको सच्चाई से पुकारना (पद 18)
- उससे डरना (पद 19)
- उससे प्रेम करना (पद 20)
इस्राएल का वंश किस प्रकार ईश्वर के लोग हो गये?
बाईबल में व्यवस्थाविवरण की पुस्तक हमें बताती है कि,
"यदि तू अपने परमेश्वर यहोवा की आज्ञाओं को मानते हुए उसके मार्गो पर चले, तो वह अपनी शपथ के अनुसार तुझे अपनी पवित्र प्रजा करके स्थिर रखेगा।" (व्यवस्थाविवरण 28:9)
ईश्वर के लोग होने का अर्थ यह है कि ईश्वर की आज्ञाओं को मानना और उसके द्वारा बताये गये मार्गो में चलना। यह कोई अचानक या जल्दबाजी में लिया जाने वाला निर्णय नही है कि हम कह दें कि, "ठीक है – परमेश्वर अच्छा है, उसकी आज्ञाऐं अच्छी है, मैं उनका पालन करूंगा।" इस निर्णय में परमेश्वर और उसकी आज्ञाओं की और बहुत सी बाते निहित है। व्यवस्थाविवरण के 29 अध्याय में इस निर्णय में निहित बातों के विषय में बताया गया है कि किस प्रकार इस्राएलियों को एक दृढ़ और गंभीर सहमति देनी थी। यह कोई ऐसी बात नही थी कि आज वे अपने मुँह से बोल दें और कल भूल जाये।
"जो वाचा तेरा परमेश्वर यहोवा आज तुझ से बाँधता है, और जो शपथ वह आज तुझ को खिलाता है, उसमें तू साझी हो जाए;" (व्यवस्थाविवरण 29:12)
अत: यह निर्णय लेने का अर्थ यह है कि हम ईश्वर से वाचा बांधते है – अर्थात एक न बदलने वाली सहमति। यह कोई ऐसा निर्णय नही है जिसे आप हजारों लोगों की भीड़ के साथ भावनाओं में बहकर ले लें। बाईबल और विशेष रूप से प्रभु यीशु मसीह बहुत ही महत्वपूर्ण है इसलिए जब भी चुनाव करें तो यह चुनाव आग्रहपूर्ण और अपनी इच्छा से होना चाहिए। यह एक ऐसा चुनाव है जिसके द्वारा हम जीवन या मृत्यु को चुनते है।
"मैंने जीवन और मृत्यु, अशीष और शाप को तुम्हारे आगे रखा है; इसलिये तू जीवन ही को अपना लें।" (व्यवस्थाविवरण 30:19)
अत: हमारे पास चुनाव है कि क्या हम ईश्वर के साथ जीवन को चुनना चाहते या नही?
लूका 14 अध्याय हमें बताता है कि हमे यह चुनाव कितना ध्यानपूर्वक करना चाहिए:
"जब बड़ी भीड़ उसके साथ जा रही थी, तो उसने पीछे मुड़कर उनसे कहा, "यदि कोई मेरे पास आए और अपने पिता और माता और पत्नी और बच्चों और भाइयों और बहिनों वरन् अपने प्राण को भी अप्रिय न जाने, तो वह मेरा चेला नही हो सकता।" (लूका 14:25-26)
"बडी भीड़" – यीशु मसीह ने भीड़ को अपने पीछे चलने के लिए कभी उत्साहित नही किया। बल्कि उन्होंने कहा, "कि यदि तुम मेरे पीछे आना चाहते हो तो ऐसा ही करो, लेकिन भीड़ के पीछे मत चलो, जब तक तुम मुझे दूसरी चीजों, यहां तक कि अपने जीवन से भी अधिक सर्वोपरी मानने के लिए तैयार नही होते हो, तब तक तुम मेरे पास नही आ सकते।" यीशु जानते थे कि भीड़ से क्या खतरा होता है और उसकी भावनाऐं कैसे फैलती है। यीशु भीड़ को रोकना चाहते है और चाहते है कि वे सोचे कि वे क्या कर रहे है। हमारे लिए यीशु मसीह परिवार, पारिवारिक परम्परा, और यहां तक कि अपने से भी सर्वोपरि होने चाहिए, तो क्या यीशु ने कहा कि पहले मुझे चुनो, अन्यथा तुम्हारे लिए मेरे चेले बनना मुश्किल होगा? नही! उन्होंने ऐसा नही कहा, बल्कि यह कहा कि "तुम मेरे चेले नही हो सकते।"
अपने आप को परमेश्वर के विशेष विधान के कार्य क्षेत्र में रखने के लिए और अपने आप को उसके लोग बनाने के लिए हमें सम्पूर्ण समर्पण का निर्णय लेना है। एक ऐसा समर्पण जिसमें हम अपना सम्पूर्ण विश्वास, सिर्फ और सिर्फ ईश्वर में रखे ना कि मनुष्य में। दो मार्ग है – ईश्वरीय मार्ग और मनुष्य के मार्ग, अर्थात शारीरिक और आत्मिक और हमें उनमें से एक चुनना चाहिए दोनों को नही।
"स्रापित है वह पुरूष जो मनुष्य पर भरोसा रखता है, और उसका सहारा लेता है, जिसका मन यहोवा से भटक जाता है। वह निर्जल देश के अधमरे पेड़ के समान होगा और कभी भलाई न देखेगा। वह निर्जल और निर्जन तथा लोनछाई भूमि पर बसेगा।" (यिर्मयाह 17:5-6)
यदि आप मनुष्य के मार्गो को चुनते है तो आपकी दशा ऐसी होगी जैसे बिना पानी के किसी पौधे की होती है। यदि आप ईश्वर में विश्वास करते है तो आप उस पेड़ के समान होंगे जो पानी से सींचा जाता है (पद 7-8) – आप कभी नही मरेंगे। और यही वह चुनाव है जो हमें करना है।
कभी-कभी हमें परमेश्वर के चुनाव के विषय में आश्चर्य होता है। और हम सोचते है कि वह क्यों हमें अपनी विशेष देखभाल के कार्यक्षेत्र में लाना चाहता है – जबकि दूसरे 7.7 अरब लोगों को नही – मैं ही क्यों? यह ईश्वर का चुनाव है, जिसके विषय में आप ईश्वर से प्रश्न नही कर सकते। लेकिन जिस आधार पर वह यह चुनाव करता है उसके विषय में वह हमें कुछ बताता है:
"यहोवा यों कहता है... मैं उसी की ओर दृष्टि करूंगा जो दीन और खेदित मन का हो, और मेरा वचन सुनकर थरथराता हो।" (यशायाह 66:1-2)
इस पद में यह ईश्वर की वही 'दृष्टि' है जिसकी हम प्रतिक्षा में है। पुराने समय में इस्राएली लोगों की एक बहुत ही सुन्दर प्रार्थना थी, जिसे हम सब लोग अच्छी तरह से जानते है। गिनती उसके 6 अध्याय में याजक द्वारा लिखी गयी प्रार्थना। यह प्रार्थना हमें बताती है कि परमेश्वर की इस दृष्टि का, उन लोगों के लिए क्या अर्थ है जो उसके वचन से डरते है और उसके पास आते है।
"यहोवा तुझे आशीष दें और तेरी रक्षा करें; यहोवा तुझ पर अपने मुख का प्रकाश चमकाए, और तुझ पर अनुग्रह करें; यहोवा अपना मुख तेरी ओर करें; और तुझे शान्ति दें।" (गिनती 6:24-26)
यह ईश्वर की उसके अपने लोगों के ऊपर, उसकी महिमा की चमक की, एक आश्चर्यजनक आशीष है। लेकिन हमें एक बात स्वीकार करनी चाहिए कि हमारे जीवन में एक ऐसा समय होता है जब हमें यह महसूस होता है कि परमेश्वर की यह दृष्टि हम पर नही है – जब हम महसूस करते है कि परमेश्वर के मुख की इस रोशनी से हमारा जीवन रोशन नही है।
"क्योंकि हर एक अच्छा वरदान और हर एक उत्तम दान ऊपर ही से है, और ज्योतियों के पिता की ओर से मिलता है, जिसमें न तो कोई परिवर्तन हो सकता है, और न अदल बदल के कारण उस पर छाया पड़ती है।" (याकूब 1:17)
परमेश्वर कभी अपना मुंह नही मोड़ता – वह रोशनी का पिता है। तो यदि ईश्वर अपना मुंह नही मोड़ता – और उसके मुख की रोशनी हम पर से कभी नही हटती – तो फिर क्यों हम ऐसा महसूस करते है कि उसकी यह रोशनी हमारे जीवन में नही है?
भजन संहिता उसका 80 अध्याय इसके विषय में हमें बहुत ही अच्छी तरह से बताता है कि हमारे जीवन के उस समय में ऐसा क्या होता है कि हम ऐसा महसूस करते है कि परमेश्वर की रोशनी हमारे जीवन में नही है।
"हे परमेश्वर, हम को ज्यों का त्यों कर दे; और अपने मुख का प्रकाश चमका, तब हमारा उद्धार हो जाएगा।" (भजन संहिता 80:3)
"हे परमेश्वर हमें ज्यों का त्यों कर दे" यह भजनकार की पुकार है – भजनकार ऐसा नही कहता कि परमेश्वर तू ज्यों का त्यों हो जा अर्थात फिर से हमारी ओर अपना मुख कर- क्योंकि परमेश्वर कभी ना बदलने वाला परमेश्वर है – और ये हम (मनुष्य) ही है जो अपना मुंह परमेश्वर की ओर से मोड़कर उससे दूर हो जाते है। ये हम (मनुष्य) ही है जो अपने आप को परमेश्वर से दूर ले जाते है और अपने जीवन में अपने मन के अनुसार चलने लगते है। परमेश्वर का प्रकाश, उसके अपने लोगों पर अटल है। ये हम (मनुष्य) है जो परमेश्वर से दूरी बनाते है। हम परमेश्वर के मार्गो को छोड़कर अपने लिए एक ऐसी स्थिति बनाते है जब हम यह महसूस करते है कि परमेश्वर का प्रकाश और उसके प्रेम की गरमाहट हमारे जीवन में नही है।
मुझे 60 के दशक की कॉलेज के दिनों की एक कहावत याद आती है – "यदि ईश्वर दूर लगता है – तो अनुमान लगाओ की कौन दूर हटा है?" परमेश्वर नही बल्कि हम। यदि ईश्वर आपको अपने जीवन से दूर लगता है तो यह आप है जो चलकर उससे दूर हो गये है परमेश्वर नही–
"यदि हम अविश्वासी भी हों, तौभी वह विश्वासयोग्य बना रहता है, क्योंकि वह आप अपना इन्कार नहीं कर सकता।" (2 तीमुथियुस 2:13)
इसलिए इस भजन में जोशीला उत्साह है:
"हे सेनाओं के परमेश्वर, हम को ज्यों का त्यों कर दे; और अपने मुख का प्रकाश हम पर चमका, तब हमारा उद्धार हो जाएगा।" (भजन संहिता 80:3,7,19)
हमें परमेश्वर की ओर मुड़ना है, अपना मुंह परमेश्वर की ओर करना है और हमें अपने आप को उसके मार्गो में चलाना है। इस प्रार्थना में आप कुछ पाते है – यह परमेश्वर से प्रार्थना है कि वह हमें उसकी ओर मुड़ने में हमारी सहायता करें – "हे परमेश्वर हमें ज्यों का त्यों कर दें"। भजनकार ईश्वर से उसके जीवन और हमारे जीवन में कार्य करने के लिए प्रार्थना करता है- जिससे वह और हम परमेश्वर की ओर मुड़ जाये। परमेश्वर ही है जो यह करेगा। वह हमारे जीवन की उन परिस्थितियों को बदलेगा जिनसे हम उससे दूर हो गये है और वापिस हमें अपनी ओर मोड़ेगा- और यह तभी होगा यदि हम ऐसा चाहते है।
"यदि तुम आज्ञाकारी होकर मेरी मानो,..." (यशायाह 1:19)
मैं तेरे पापों को दूर कर सकता हूँ, मैं तुझे निर्मल कर सकता हूँ, मैं सबकुछ कर सकता हूँ– यदि तुम आज्ञाकारी होकर मेरी मानो। यह हमारी भूमिका है। हमारी इच्छा होनी चाहिए कि ईश्वर हमारे जीवन में कार्य करें – उसके हाथ हमेशा हम पर फैले है- हमें मुड़ना है और उसके हाथों को थामना है।
इसलिए हमें ईश्वर की ओर मुड़ने की आवश्यकता है और एकबार जब हम उस उसकी ओर मुड़ जाते है और वापिस उसके मुख की चमक और उसकी देखभाल में आ जाते है तो फिर कोई भी चीज हमें उससे दूर नही कर सकती है। यीशु मसीह ने कहा, "ईश्वर से बड़ी कोई चीज नही है जो हमें ईश्वर के हाथों से ले सके"। (यूहन्ना 10:29)
"धर्मी और बुद्धिमान लोग और उनके काम परमेश्वर के हाथ में हैं।" (सभोपदेशक 9:1)
यशायाह 38 अध्याय में हिजकिय्याह परमेश्वर के हाथों में था, लेकिन तो भी वह अपने आप को बहुत ही नीचा महसूस कर रहा था।
"मुझ पर अन्धेर हो रहा है ... तू मेरा सहारा हो।" (यशायाह 38:14)
सहारा देने वाले ऐसे लोग होते है जो किसी निकटतम व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर उस दुख के समय में अन्तिम संस्कार की सारी जिम्मेदारी लेते है और दुख के इस समय के भार को बांटते है और उठाते है। ऐसा ही सहारा देने की प्रार्थना हिजकिय्याह भी ईश्वर से करता है – हे ईश्वर तू मुझे सहारा दें, मैं इस समय इन दुखों का सामना नही कर सकता, तू मेरे लिए यह कर – और ईश्वर ऐसा करेगा!
यहेजकेल के बारे में सोचिए:
"उसने मुझ से कहा,"हे मनुष्य के सन्तान, अपने पाँवों के बल खड़ा हो, और मैं तुझ से बातें करूँगा। जैसे ही उसने मुझ से यह कहा, त्योंही आत्मा ने मुझ में समाकर मुझे पाँवों के बल खडा कर दिया; और जो मुझ से बातें करता था मैंने उसकी सुनीं।" (यहेजकेल 2:1-2)
यहेजकेल को एक आज्ञा दी गयी है कि "अपने पैरों पर खड़ा हो", लेकिन हम देखते है कि ईश्वर (आत्मा) ने उसके लिए ऐसा किया!
"तब उसने मुझ से कहा, "हे मनुष्य के सन्तान, जो तुझे मिला है उसे खा ले; अर्थात इस पुस्तक को खा, तब जाकर इस्राएल के घराने से बातें कर। इसलिए मैंने मुँह खोला और उसने वह पुस्तक मुझे खिला दी।" (यहेजकेल 3:1-2)
फिर से उसको, उस पुस्तक को खाने की, आज्ञा दी गयी, और उसने अपना मुंह खोलकर इस कार्य को करने की अपनी इच्छा को प्रगट किया और ईश्वर ने उसके लिए ऐसा किया!
वह ईश्वर का दुलारा था जिसको ईश्वर ने खिलाया क्योंकि उसने ईश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए अपना मुंह खोला – वह एक ऐसे बच्चे के समान नही था जो खिलाये जाने के लिए अपना मुंह खोलने से मना कर दें – हम सब जानते है कि यह कितना कठिन है! लेकिन कभी कभी हम ऐसा करते है कि हमारे जीवन में ईश्वर जो कुछ हमें देना चाहता है हम उसको स्वीकार नही करते है। यदि हम ईश्वर के मार्ग में चलना चाहते है – यदि ऐसा हम अपनी इच्छा से करना चाहते है – वह हमारे लिए वही करेगा जो हमारे लिए नियुक्त है।
"तब आत्मा मुझे उठाकर ले गयी, और मैं कठिन दुख से भरा हुआ, और मन में जलता हुआ चला गया; और यहोवा की शक्ति मुझ में प्रबल थी।" (यहेजकेल 3:14)
यदि हमने उसके मार्गो को चुन लिया है, तो चाहे परिस्थितिवश वह हमारी व्यक्तिगत पसन्द ना हो, तो वह हमारी व्यक्तिगत पसन्द को एक तरफ करेगा क्योंकि वह हमारे मन की गहराई को जानता है और उसकी यही इच्छा है कि हम उसकी खोज करें।
भजन संहिता 37 हमें इस विषय में सबसे अधिक सिखाता है कि किस प्रकार हम अपने आप को ईश्वर के संरक्षण में ला सकते है।
"यहोवा पर भरोसा, और भला कर; देश में बसा रह, और सच्चाई में मन लगाए रह।" (पद 3)
हमारी हिस्सेदारी – ईश्वर पर भरोसा, और उस भरोसे के अनुसार अपना जीवन जीना – और तब वह हमें देगा।
"यहोवा को अपने सुख का मूल जान, और वह तेरे मनोरथों को पूरा करेगा।" (पद 4)
इसके विषय में विचार कीजिए कि "ईश्वर में आनन्दित रह" – जिन बातों में आप आनन्दित रहते है वे बातें यदि ईश्वर की है तो वह तुम्हें तुम्हारी मन की इच्छा के अनुसार देगा। यह ऐसा नही बताता कि ईश्वर तुम्हें तुम्हारे स्वार्थी मन की इच्छा के अनुसार देगा – उस हद्वय की इच्छा के अनुसार नही जैसे हद्वय का वर्णन हम यिर्मयाह 17:9 में पढते है, कि हद्वय कपटी है। ईश्वर ऐसे हद्वय की इच्छाओं को पूरा नही करता है। लेकिन भजन 51:10 में वर्णित हद्वय को वह चाहता है कि, "मेरा मन पवित्र कर दें।" वह एक ऐसे हद्वय के विषय में बता रहा है जो परमेश्वर की बातों से प्रसन्न होता है। और यदि वे बातें जिनसे आप खुश होते है वे परमेश्वर की बातें है तो वह आपके मन की इच्छा के अनुसार आपको देगा। आपको वे सब चीजें देगा जिनसे आप परमेश्वर में प्रसन्न रहे।
"इच्छा" का अर्थ यहां अभिलाषा से नही है बल्कि यह वही शब्द है जिसका अर्थ है आवेदन अर्थात "माँगना"। यदि हम मांगेंगे तो हमें मिलेगा, लेकिन यह तभी होगा जबकि हमारा आवेदन ईश्वर में प्रसन्न सच्चे हद्वय से हो।
"अपने मार्ग की चिन्ता यहोवा पर छोड़; और उस पर भरोसा रख, वही पूरा करेगा।" (भजन संहिता 37:5)
ईश्वर पर भरोसा रखने से और उस विश्वास करने से वह हमारी हद्वय की इच्छाओं को पूरा करता है। इस पद में लिखा है कि "अपने मार्ग की चिन्ता यहोवा पर छोड़" अत: हमें अपने आप को ईश्वर के प्रति समर्पित करना है। तो क्या हम इतने दुखी और थके हुए है कि अपने आप को परमेश्वर के मार्ग में खड़ा नही रख सकते या अपने को उसके हाथों में समर्पित नही कर सकते है।
"यहोवा के सामने चुपचाप रह और धीरज से उसकी प्रतीक्षा कर।" (पद 7)
ईश्वर पर भरोसा रखने, उसमें प्रसन्न रहने, उसके प्रति समर्पित रहने, और उसमें विश्राम करने में सब कुछ निहित है।
‘आप विधान को बदल सकते है – 1’ (You Can Change Providence – 1) is from ‘Caution! God at work’, by Tim Galbraith
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