Dipak Issue 33 (August 2018)

तेरा वचन मेरे पांव के लिये दीपक, और मेरे मार्ग के लिये उजियाला है। भजन संहिता 119:105

मैं यहाँ हूँ, मुझे भेज
Here am I, send me

“मैं यहाँ हूँ! मुझे भेज।” (यशाया‍ह 6:8) और परमेश्‍वर ने कहा, “जा, और इन लोगों से कह, ‘सुनते ही रहो, परन्‍तु न समझो, देखते ही रहो, परन्‍तु न बूझो।’”

यशायाह गया और लोगों को प्रचार किया, लेकिन जैसे परमेश्‍वर ने पहले से ही कह दिया था, उन्‍होंने बिना समझे सुना और बिना बूझे देखा।

यशायाह के समान ही हम भी आज उस समय में रह रहे है जहां कुछ लोगों के पास परमेश्‍वर के वचन को सुनने के कान है, और उसकी महिमा, उसकी चेतावनीयां, या समय के चिन्‍हों को देखने के लिए आखें है। इस सत्‍य से कि कुछ देखेंगे और सुनेंगे, हमारा यह कहने का कर्तव्‍य कम नही हो जाता है कि “मैं यहाँ हूँ! मुझे भेज।” परमेश्‍वर अपने नाम के लिए लोगों को यहां और वहां से बुला रहा है। मजदूर थोड़े है। यह समय परमेश्‍वर का मजदूर होने के लिए बेरोजगार रहने का नही है। काम बहुत है। फसल बहुतायत में है। तो जब करने के लिए इतना काम है, हम बेकार रहने का क्‍या कारण दे सकते है? अरे, फिर भी बहुत से कारण है जो हम दे सकते है। जैसे यीशु ने भी हमें दृष्‍टान्‍त में बताया कि, “पहले ने कहा, ‘मैंने खेत मोल लिया है’... दूसरे ने कहा, ‘मैंने पांच जोड़े बैल मोल लिये हैं’... एक और ने कहा, ‘मैंने विवाह किया है इसलिए मैं नही आ सकता।’” (लूका 14:18-20) इन सब ने जो कारण दिये वे आज के आधुनिक बहानों से ही सम्‍बन्धित है। खेत अधिकांशतया समुद्र के किनारे बना घर हो सकता या पहाड़ पर बना एक केबिन हो सकता है या रेगिस्‍तान में बना एक स्‍थान हो सकता है यहां तक कि यह हमारे घर में बना बगीचा भी हो सकता है। किसी भी किमत पर हम प्रचार के लिए नही जा सकते है क्‍योंकि शनिवार को हमें इसकी देखभाल करनी होती है। बैल हमारी गाडि़या हो सकती है जो हमें परमेश्‍वर के कार्य पर ले जाने के बजाय हमें इस संसार के कार्यो के उतार और चढावों में ले जाते है। पत्नियां यीशु के समय से नही बदली है और प्राय: पति या पत्‍नी जो कार्य नही करना चाहते है उसको न करने का एक बहुत ही अच्‍छा बहाना बनाते है।

जब सत्‍य को प्रचार करने अर्थात हमारी आशा के विषय में दूसरों को बताने की बात आती है, तो मूसा के समान ही हम भी महसूस करते है, जिसने परमेश्‍वर से कहा, “हे मेरे प्रभु, मैं बोलने में निपुण नही” लेकिन परमेश्‍वर ने उत्‍तर दिया, “मनुष्‍य का मुंह किसने बनाया है?... मुझ यहोवा को छोड़ कौन बनाता है? अब जा...” (निर्गमन 4:10-11)

वे जो परमेश्‍वर का कार्य करने के लिए जाते है और वे जो बहाना बनाकर घर पर ही रहते है उनके बीच यह अन्‍तर नही है कि वे योग्‍य है और दूसरे अयोग्‍य है बल्कि यह कि जाने वाले और करने वाले यह सोचकर जाते है और करते है कि वे अपने आप से कुछ नही कर सकते है बल्कि परमेश्‍वर उनके साथ है तो कौन उनके विरोध में हो सकता है। और इसलिए वे पौलुस के साथ कहते है कि, “जो मुझे सामर्थ्‍य देता है उसमें मैं सब कुछ कर सकता हूं” (फिलिप्पियों 4:13) और जितना अच्‍छा वे कर सकते है वह करने के लिए वे दूर तक जाते है। आश्‍चर्यजनक रूप से उनको पता चलता है कि जितना अधिक वे करते है उतना ही अधिक करने के योग्‍य वे होते जाते है और दुखी अयोग्‍य भी परमेश्‍वर की कृपा से कार्य को पूरा कर पाते है और मजदूर सीखने वालों से भी अधिक सीखते जाते है और उसका लाभ लेते है।

पौलुस हमें बताता है कि, “और जो जो बातें तुम्‍हारे लाभ की थी, उन को बताने और लोगों के सामने और घर घर सिखाने से कभी न झिझक।” (प्रेरितों 20:20) क्‍या हम अपने आस पास लोगों को सिखाने से झिझक रहे है क्‍योंकि हमें घर घर जाने में शर्म आती है? क्‍या हम इस डर से नही सिखा रहे है कि कोई हम से कुछ प्रश्‍न करेगा और हम उत्‍तर नही दे पायेंगे और हमारा अपमान होगा? क्‍या हमारी भावनाऐं हमारे लिए इतनी महत्‍वपूर्ण है कि हम उन्‍हें दिखाए जाने वाले खतरे से बचाएंगे?

पौलुस ने कहा, “क्‍योंकि मैं सुसमाचार से नही लजाता, इसलिए कि वह हर एक विश्‍वास करने वाले... के लिए उद्धार के निमित्‍त परमेश्‍वर की सामर्थ है।” (रोमियों 1:16) क्‍या हम लजाते है? यीशु ने चेतावनी दी कि कुछ लोग सुसमाचार से लजायेंगे और उन्‍होंने कहा, “जो कोई इस व्‍यभिचारी और पापी जाति के बीच मुझ से और मेरी बातों से लजाएगा, मनुष्‍य का पुत्र भी जब वह पवित्र दूतों के साथ अपने पिता की महिमा सहित आएगा, तब उसे से भी लजाएगा।” (मरकुस 8:38)

यदि हम यशायाह के उदाहरण का अनुसरण करें तो हम कहेंगे, “मैं यहाँ हूँ! मुझे भेज।” और परमेश्‍वर हमसे कहेगा “जा, और इन लोगों से कह” और शीघ्र ही यीशु हमसे कहेंगे, “‘हे मेरे पिता के धन्‍य लोगों, आओ, उस राज्‍य के अधिकारी हो जाओ, जो जगत के आदि से तुम्‍हारे लिये तैयार किया हुआ है।’” (मत्‍ती 25:34)

‘मैं यहाँ हूँ, मुझे भेज’ (Here am I, send me) is taken from ‘Minute Meditations’ by Robert J. Lloyd

बपतिस्‍मा
(Baptism)

क्‍या बपतिस्‍मा एक धार्मिक प्रक्रिया है या एक अनावश्‍यक औपचारिकता है या यह बच्‍चों के लिए है या फिर यह विश्‍वास के लिए किया जाने वाला एक आवश्‍यक कार्य है? यहां हम इसी बात पर विचार करेंगे कि बपतिस्‍मा क्‍या है, या क्‍या नही है, और परमेश्‍वर ने इसके महत्‍व के विषय में क्‍या कहा।

मुख्य पद: रोमियों 6:3-14

जब से आदम और हव्‍वा ने प्रतिबन्धित फल खाया तब से, अच्‍छाई और बुराई के बीच, एक संघर्ष चला आ रहा है। प्रभु यीशु मसीह कभी पाप न करने के द्वारा हमारे लिए इस द्वन्‍द्व में जीते और हम सब के पापों को अपने ऊपर ले लिया। वह पाप पर विजेता है।

हम पाप से बचकर और बपतिस्‍मा लेकर प्रभु यीशु मसीह के उदाहरण का अनुसरण करके, उसकी विजय में सहभागी हो सकते है।

  1. बपतिस्‍मा किस बात का संकेत है? (पद 3-4)
  2. जब हम बपतिस्‍मा लेते है तो हम किस बात के लिए मर जाते है? (पद 6)
  3. बपतिस्‍मा इस बात को कैसे प्रगट करता है कि हम यीशु के पीछे चलने वाले लोग है?
  4. बपतिस्‍में से पहले हम किसकी सेवा कर रहे है?
  5. बपतिस्‍में के बाद हमें किसकी सेवा करनी चाहिये?

प्रतीक

जब आप बपतिस्‍मा लेते है तो यह मसीह की मृत्‍यु और पुर्नरूत्‍थान का प्रतीक है।

यीशु:
मर गये कब्र में दफनायें गये पुर्नजीवित हुए अनन्‍त जीवन पाया
हम:
पाप के लिए मर गये पानी के नीचे दफनायें गये पानी से बाहर उठे मसीह में नया जीवन पाया

पानी में पूरी तरह से डूब जाना, पुराने मनुष्‍यत्‍व के दफनायें जाने के समान है। पानी से बाहर आना, मसीह में एक नये जीवन में पुर्नजीवित होने का संकेत है। इसलिए बिना डूबकी वाला बपतिस्‍मा इन सब संकेतों को पूरा नही करता है।

इसमें कोई सन्‍देह नही है कि प्रथम शताब्‍दी में भी डूबकी वाला बपतिस्‍मा लेने का प्रचलन था। जब फिलिप्‍पुस ने इथोपिया के खोजे को बपतिस्‍मा दिया तो हम पढ़ते है कि-

“फिलिप्‍पुस और खोजा दोनों जल में उतर पड़े, और उसने उसे बपतिस्‍मा दिया। जब वे जल में निकलकर ऊपर आये ...” (प्रेरितों के काम 8:38-39)

कुछ सम्‍बन्धित पद

बपतिस्‍में का अर्थ प्रेरितों के काम 22:16; रोमियों 6:3-4; कुलुस्सियों 2:12; तितुस 3:5; 1 पतरस 3:21
बपतिस्‍मा लेने की आज्ञा मत्‍ती 28:18-20; मरकुस 1:4; 16:16; यूहन्‍ना 3:5; प्रेरितों के काम 2:37-38
बपतिस्‍में के उदाहरण मत्‍ती 3:6,13-16; यूहन्‍ना 3:23; प्रेरितों के काम 2:41; 8:12-13; 8:36-39; 9:18; 10:47-48; 16:15,33; 18:8; 19:5
संकेतिक बपतिस्‍मा मरकुस 10:38-39; लूका 12:50; 1 कुरिन्थियों 10:2; 1 पतरस 3:20-21
पवित्र आत्‍मा का बपतिस्‍मा मत्‍ती 3:11; प्रेरितों के काम 1:5; 11:15-16

जीने के लिए मरना

बपतिस्‍मा पाप के लिए मर जाना है, तो दूसरी तरफ यह परमेश्‍वर में जीवित होना भी है। (रोमियों 6:11) बपतिस्‍मा एक मृत्‍यु है जो एक नये जीवन की ओर ले जाती है। हम एक नये मनुष्‍य बन जाते है, हमारा पुराना पापपूर्ण मनुष्‍यत्‍व सांकेतिक रूप से, यीशु के साथ क्रूस पर, मर जाता है। बपतिस्‍में से पहले हम पाप की सेवा करते है परन्‍तु उसके बाद हम परमेश्‍वर की सेवा करते है। (रोमियों 6:6-11)

यदि आप यीशु के एक नये शिष्‍य है या बपतिस्‍मा लेने के विषय में सोच रहे है तो आपको यह सोचना अनविार्य है कि आप अपने व्‍यवहार में, प्रभु को भावने वाले, बदलाव कैसे कर सकते है। क्‍या आप पहले शपथ खाते या गपशप करते थे?

“कोई गन्‍दी बात तुम्‍हारे मुंह से न निकलें, पर आवश्‍यकता के अनुसार वही जो उन्‍नति के लिए उत्‍तम हो, ताकि उससे सुनने वालों पर अनुग्रह हो।” (इफिसियों 4:29)
क्‍या आपने अपने पुराने जीवन में कभी यौन पाप किया?
“तुम दाम देकर मोल लिये गये हो, इसलिए अपनी देह के द्वारा परमेश्‍वर की महिमा करो।” (1 कुरिन्थियों 6:20)
क्‍या आपने अपने पुराने जीवन में धन-सम्‍पत्ति से प्रेम किया?
“...भलाई करें, और भले कामों में धनी बनें, और उदार और सहायता देने में तत्‍पर हो।” (1 तिमुथियुस 6:18)
वे लोग, जिन्‍होंने कुछ समय पहले बपतिस्‍मा लिया है, उनको यह सोचने की जरूरत है कि आगे उनको यीशु के समान बनने के लिए अपने जीवन में किन बदलावों को लाने की आवश्‍यकता है।

क्‍या यह वास्‍तव में जरूरी है?

कुछ लोग कहते है कि परमेश्‍वर का अनुसरण करने के लिए बपतिस्‍मा एक “अतिरिक्‍त विकल्‍प” है। लेकिन बाईबल स्‍पष्‍ट रूप से बताती है कि परमेश्‍वर हमसे क्‍या चाहता है।

“जो विश्‍वास करें और बपतिस्‍मा ले उसी का उद्धार होगा, परन्‍तु जो विश्‍वास न करेगा वह दोषी ठहराया जाएगा।” (मरकुस 16:16)
यदि हम पाप और मृत्‍यु से बचना चाहते है और अनन्‍त जीवन पाना चाहते है तो बपतिस्‍मा अतिआवश्‍यक है।

नामकरण

बहुत से चर्च पानी के छिड़काव के द्वारा बच्‍चों का ‘नामकरण’ या ‘बपतिस्‍मा’ करते है। बाईबल के अनुसार यह बपतिस्‍मा नही है। ऐसे बपतिस्‍में का वर्णन बाईबल में कही नही है और न ही यह रोमियों की पुस्‍तक के 6वें अध्‍याय में वर्णित संकेतों को प्रगट करता है। बपतिस्‍मा विश्‍वासियों के लिए विश्‍वास का प्रगटीकरण है और इसलिए यह बच्‍चों के लिए सम्‍भव नही है।

बपतिस्‍मा लेने का निर्णय

बपतिस्‍मा एक बहुत ही महत्‍वपूर्ण निर्णय है - इतना बड़ा कि जो शायद ही आपने कभी लिया हो। कोई भी बड़ा निर्णय लेने से पहले आपको बहुत ही सावधानीपूर्वक विचार करने की आवश्‍यकता है और बपतिस्‍मा भी एक ऐसा ही निर्णय है। लेकिन निर्णय को स्‍थगित न करें। जिस बात से आप परेशान है उसका सामना करें, बाईबल पढें, समझ के लिए प्रार्थना करें, दूसरों से बातें करें, कार्यवाही करें!

बपतिस्‍में से पहले यह आवश्‍यक है कि यीशु मसीह और परमेश्‍वर के राज्‍य के सुसमाचार पर विश्‍वास करें, और अपने पापों से मन फिरायें। यदि आप सुसमाचार पर विश्‍वास करते है तो आपका विवेक बपतिस्‍में के लिए आपको मजबूर करेगा। पतरस बपतिस्‍में को इस प्रकार वर्णित करता है कि, “शुद्ध विवेक से परमेश्‍वर के वश में हो जाना।” (1 पतरस 3:21)

ऐसा ना सोचें कि आप बपतिस्‍में के योग्‍य नही है। बपतिस्‍मा इसी बात की स्‍वीकृति है कि आप उतने भले नही है! आप कभी भी उतने भले नही होंगे और आपको पापों की क्षमा की जरूरत है। परमेश्‍वर भला है और वह आपको भी क्षमा कर सकता है। जब हम अपने पापों से मन फिराकर बपतिस्‍मा लेते है, तो परमेश्‍वर हमें क्षमा करता है। हमारे पाप धुल जाते है और फिर ये परमेश्‍वर के साथ हमारे सम्‍बन्‍ध के बीच बाधा नही रहते है।

बपतिस्‍मा लेने के बाद एक नया जीवन शुरू होता है। आप एक शपथ लेते है, यह जीवन भर के लिए एक प्रतिबद्धता है। आप परमेश्‍वर के परिवार में सम्मिलित होकर, परमेश्‍वर की गोद लिये हुए बच्‍चे हो जाते है। आप इस बात से आनन्दित हो सकते है कि आपका एक प्रेमी पिता है जो आपका ध्‍यान रखता है और आपका मार्गदर्शन करता है, और आप उसके राज्‍य में अनन्‍त जीवन की आशा रख सकते है। (रोमियों 8:12-17)

विचारणीय पद

    1. किसी व्‍यक्ति को बपतिस्‍मा लेने के लिए क्‍या प्रेरित करना चाहिये?
    2. क्‍या कोई ऐसी चीज है जो किसी व्‍यक्ति को बपतिस्‍मा लेने से रोक सकती है?
  1. जब यूहन्‍ना यह कहता है कि, “मन फिराव के योग्‍य फल लाओ” तो इसका क्‍या अर्थ है? (लूका 3:8)
  2. यीशु मसीह ने बपतिस्‍मा क्‍यों लिया था?

अन्‍य खोज

  1. रोमियों 6:3-14 को अपने शब्‍दों में लिखिये।
  2. 1 पतरस 3:21 की व्‍याख्‍या कीजिये। क्‍या आप पुराने नियम से कुछ और सांकेतिक बपतिस्‍मों के उदाहरण बता सकते है?
  3. यदि आपने बपतिस्‍मा नही लिया है, तो उन बातों को लिखिये जो आपको रोक रही है और उनसे आप किस प्रकार निपटेंगे?
  4. बपतिस्‍में के लिए मूल यूनानी भाषा में जो शब्‍द है उसका क्या अर्थ है? नये नियम में यह और किस प्रकार से प्रयोग हुआ है? बपतिस्‍में को समझने में यह हमारी किस प्रकार से सहायता करता है? क्‍या इसका अर्थ केवल बपतिस्‍मा है या कुछ और है?

‘बप्तिस्मा’ (Baptism) is from ‘The Way of Life’, edited by Rob J. Hyndman

आत्मा का फल – 3
(Fruit of the Spirit – Part 3)

सही अभ्‍यास किया जा रहा है

हमारी परीक्षाओं के इस विषय पर सबसे मुख्‍य पद इब्रानियों 12:11-13 है:

“और वर्तमान में हर प्रकार की ताड़ना आनन्‍द की नही, पर शोक ही की बात दिखाई पड़ती है, तौभी जो उसको सहते सहते पक्‍के हो गये है, पीछे उन्‍हें चैन के साथ धर्म का प्रतिफल मिलता है। इसलिए ढीलें हाथों और निर्बल घुटनों को सीधे करो। और अपने पावों के लिए सीधे मार्ग बनाओं, कि लंगड़ा भटक न जाये, पर भला चंगा हो जाए।”
हमारी परीक्षाओं की मानसिक अशांन्ति और व्‍याकुलता, चाहे वह किसी भी प्रकार की क्‍यों न हो, हमें धार्मिकता का शान्पिूर्ण फल दे सकती है, यदि हम उसे होने की अनुमति दे। यदि हम जीवन की असफलताओं से मायूस और दुखी होने के बजाय, (निराश लटके हाथों और आगे बढने के लिए कमजोर घुटनों के साथ) हम अपने हाथों को प्रार्थना के लिए उठाये और अपने घुटनों को सीधा करें (आत्मिक मार्ग पर चलने का एक अलंकारिक वर्णन) तो हम लंगडे नही बल्कि भले चंगे होंगे।

हमारी वर्तमान समस्‍याऐं एक खराब, उबड़ खाबड़ सड़क के समान है जिस पर हम चल नही पा रहे है। आत्मिक रूप से, हमारे घुटने कमजोर है और हम इस खतरे में है कि जब हम इस खराब सड़क पर चलते है तो हम लंगडे हो सकते है। जीवन कभी कभी ऐसा ही प्रतीत होता है, और ऐसे में हम कहना चाहते है कि, “मैं नही चल सकता हूं” मार्ग बहुत ही कठिन दिखाई देता है।

लेकिन इस प्रश्‍न का उत्‍तर हमारे ही हाथों (और पैरों) में है। यह हमारे ही लिये है कि हम (कोई और नही) “अपने पांव के लिये सीधे मार्ग बनाये।” अपनी आत्मिक उन्‍नति के लिए हमें स्‍वंय को ही जिम्‍मेदारी लेनी है। (यह परमेश्‍वर का कार्य नही है कि वह हमारे आत्मिक विकास के लिए हमें अपने साथ ले कर चलें) इब्रानियों की पुस्‍तक के पद हमें बताते है कि अपनी समस्‍याओं में अच्‍छा अभ्‍यास करके हम ऐसा कर सकते है और हमारा लंगडापन और कमजोरी इस अभ्‍यास से दूर होगी।

हमारी आत्मिक मांसपेसी, हमारे शरीर किसी मांसपेसी के समान ही है जिस प्रकार हमारे शरीर की मांसपेसी, यदि प्रयोग न की जाये तो वह कमजोर और व्‍यर्थ हो जाती है और उसको फिर से आकार में लाने के लिए हमें व्‍यायाम करना पड़ता है। जब लोग बिना चले फिरे बहुत लम्‍बे समय तक अस्‍पताल में रहते है तो उनको फिर से चलने से पहले अपने पैरों की सामर्थ को प्राप्‍त करने की आवश्‍यकता होती है। प्रयोग न होने वाली मांसपेसी को व्‍यायाम की आवश्‍यकता होती है, अन्‍यथा वह पूरी तरह से व्‍यर्थ हो जाती है।

परमेश्‍वर हमारी आत्मिक मांसपेसी को मजबूत करने के लिए हमें समस्‍याऐं देता है, ना कि इसको कमजोर करने के लिए। परमेश्‍वर हमारे जीवन के उस क्षेत्र को चुनता है जिस पर ध्‍यान देने की जरूरत है और उन क्षेत्रों को मजबूत करने के लिए कुछ भेजता है। यदि हम इन समस्‍याओं को सही तरह से अभ्‍यास करने देते है तो नि:सन्‍देह परिणाम अच्‍छे होंगे।

समस्‍या यह है कि उबड खाबड मार्ग पर हमारा लंगड़े हो जाने का स्‍वभाव होता है। हम अपने आप को उस मार्ग पर अभ्‍यस्‍त नही होने देते है। हम अपने विश्‍वास को मजबूत करने के बजाय बडी आसानी से मुश्किल समय को अपने विश्‍वास को हिलाने देते है। लेकिन परमेश्‍वर जब हमारी परीक्षा करता है और हमें सुधारता है तो उसका हमारे लिए ऐसा कोई इरादा नही होता है कि हमारा विश्‍वास डगमगा जाये।

यदि हम प्रभु की ताड़ना को उचित रीति से सह रहे है तो “यह चैन के साथ धर्म का प्रतिफल देता है” धार्मिकता अर्थ है परमेश्‍वर के साथ सही होना – जो शान्ति लाता है।

इसलिए उचित आत्मिक भावना (आत्मिक भावना का अर्थ यहां व्‍यवहार से है) से जीवन की कठिनाईयों को स्‍वीकार करने का परिणाम शान्ति होता है। जो सही समझ में आता है, है ना? यदि हम देखते है कि हमारी समस्‍याओं में परमेश्‍वर का हाथ है और वे रूक जाती है तो वास्‍तव में यह एक समस्‍या है। ये हमें सिखाने, हमारी आत्मिक मांसपेसी को मजबूत करने के लिए एक अभ्‍यास है। प्रभु की ताड़ना वास्‍तव में हमारे अन्‍दर आत्‍मा के फलों को विकसित करती है।

इब्रानियों के इन पदों में केवल शान्ति मिलने के विषय में है, लेकिन अन्‍य आत्मिक फलों का भी विकास होता है।

एक पल के लिए रूकिये...!

...केवल शान्ति के लाभों के विषय में विचार कीजिये! आज के इस चिन्‍ताओं के युग में बहुत से लोगों के जीवन सच्‍ची शान्ति की कमी है। आत्‍मा के फल का केवल यह एक पहलू ही अपने साथ उन बहुत सी बातों को लेकर आयेगा जो एक समपूर्ण और सन्‍तुष्‍ट जीवन के लिए आवश्‍यक है। केवल शान्ति ही एक अच्‍छे भावात्‍मक और मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य को लेकर आती है, और इसके द्वारा ही एक अच्‍छा शारीरिक स्‍वाथ्‍य मिलता है, जिसके द्वारा हम एक अच्‍छा आनन्‍दमय जीवन जी सकते है, जिससे कि हम अपनी जीविका और अन्‍य अवश्‍यक चीजों को कमा सकें।

एक चीज आवश्‍यक है। जीवन के उचित आत्मिक पहलू को प्राप्‍त करें, फिर इसकी चिन्‍ता ना करें कि आपके मार्ग में क्‍या आता है, अच्‍छा या बुरा, आज देखेंगे कि इसमें परमेश्‍वर निहित है, और इसलिए यह वास्‍तव में बुरा नही हो सकता है। आप इससे निपटने में समर्थ होंगे। हो सकता है कि यह समाप्‍त ना हो लेकिन आप इससे निपटने में समर्थ होंगे। इससे आपका उचित अभ्‍यास होगा। और आप पायेंगे कि एक सन्‍तुष्‍ट जीवन के लिए आवश्‍यक सभी चीजें आपके पास है। इस बात को ध्‍यान रखें कि बाईबल बताती है, कि एक विश्‍वासी के जीवन में “सब बातें मिलकर भलाई ही को उत्‍पन्‍न करती है” यह नही कि सब बातें भली है।

व्‍हीलचेयर में बैठा एक व्‍यक्ति

एक दिन मैं (लेखक) पैदल अपने आफिस से घर के लिए आ रहा था तो मैंने एक नवयुवक व्‍यक्ति को अपने आगे एक व्‍हीलचेयर पर चलते देखा। रास्‍ते में थोड़ा चढाव था इसलिए वह धीरे धीरे चल रहा था और जैसे ही मैं उसके पास से गुजरा तो मैंने देखा कि वह अपनी व्‍हीलचेयर को चलाने के लिए अपने हाथों से कितना कठिन प्रयास कर रहा था। मैं सोच रहा था कि मुझे उसकी मदद करनी चाहिये।

थोड़ा आगे जाने के बाद मैंने पीछे मुड़कर देखा कि वह कैसे आ रहा है। मार्ग में चढाव अधिक था और वह मुश्किल ही आगे बढ पा रहा था उसकी व्‍हीलचेयर एक तरफ जा रही थी। वह नवयुवक सघंर्ष कर रहा था। मैं उसको छोड़कर आगे नही बढ़ सका और मैं पीछे गया और उससे कहा, “क्‍या मैं आपकी व्‍हीलचेयर को इस चढाव पर थोड़ा सा धकेल दूं?”

मेरे आश्‍चर्य भरे चेहरे को देखकर वह मुस्‍कराया और अपनी लम्‍बी सांसो के बीच कहा, “नही,धन्‍यवाद, यह एक अच्‍छी कसरत है।”

अच्‍छी कसरत! मुझे इस पर विश्‍वास नही हुआ। वास्‍तव में उसको उस चढान पर अपनी व्‍हीलचेयर ले जाने में काफी मुश्किल हो रही थी। यह एक कष्‍ट था। लेकिन उसके लिए यह एक अच्‍छी कसरत थी। वह वास्‍तव में अपने आप में आनन्‍द ले रहा था!

जीवन के विषय में वह कितनी अच्‍छी बात है। वास्‍तव में एक सच्‍चे विश्‍वासी का जीवन ऐसा ही होना चाहिये। हमें कठिन समय में दुखी होने या शिकायत करने के बजाये मुस्‍कराना चाहिये और उन कष्‍टों को एक अच्‍छी कसरत के रूप में देखना चाहिये। क्‍याआपको यह असम्‍भव लगता है? नही, यह असम्‍भव नही है। प्रेरित पौलुस ने भी अपनी एक पत्री में इसके विषय में लिखा “क्‍लेशो में भी घमण्‍ड करें।” (रोमियों 5:3) इसका अर्थ है कि परेशानियों में खुश रहे। पौलुस अपने कष्‍टों के समय में भी खुश रह सका क्‍योंकि उसको विश्‍वास था कि परमेश्‍वर हमेशा उसके साथ था। उसने देखा कि कोई भी ऐसी बात नही थी जिसके लिए उसको चिन्‍ता करने की जरूरत थी। सभी विश्‍वासियों को अपने हद्वय में इस सच्‍चाई को रखना चाहिये। चाहे कुछ भी क्‍यों न हो जाये, परमेश्‍वर हमें देखता और सम्‍भालता है। हमारे साथ ऐसा कुछ भी नही घटता है जिस पर परमेश्‍वर का नियन्‍त्रण न हो और ऐसा कुछ भी हमारे साथ नही घट सकता है जो वास्‍तव में बुरा हो। ‘बुरा’ ही एक ‘अच्‍छी कसरत’ है।

दूसरा कारण

हमने कहा कि दो कारण थे कि क्‍यों विश्‍वासी लोग अपनी आत्मिक क्षमताओं से नीचे का जीवन जीते है। एक तो यह है कि हम अपनी समस्‍याओं से नही सीखते है, और हम अपनी आत्मिक और भौतिक ऊर्जा को सोखने देते है। दूसरा यह है कि हम जीवन भर एक अस्‍पष्‍ट धारणा में जीते है कि आत्मिक विकास क्‍या है।

इसका परिणाम यह होता है कि हम पर्याप्‍त मजबूती से इसके लिए प्रतिबद्ध नही होते है। हम बड़े आनन्‍द से सत्‍य में समय को चिन्हित करते है और सोचते है कि हम सत्‍य में है और यही पर्याप्‍त है। लेकिन सत्‍य को रखने का लाभ तभी है जब आप इसको जानने के बाद इसके साथ काम करें। “आदम में” होने से “मसीह में” होना केवल एक हस्‍तान्‍तरण है यह परिवर्तन नही है! हमारे चरित्र का परिर्वतन इसके बाद धीरे धीरे होता है, जैसे जैसे हम अपने मस्तिष्‍क को उद्देश्‍य पूर्वक आत्मिक चीजों के लिए प्रयोग करते है - या यदि हम ऐसा नही करते तो यह परिवर्तन नही होता है। इसलिए हम आत्मिक रूप से स्थिर हो जाते है - और सत्‍य में जीवन को पूरा करने के बजाय कम खोजते है।

हमारे चरित्र का यह परिवर्तन, आत्‍मा के फल का विकास है। यह बहुत सरल है। और एक बार जब हम यह जान लेते है, तो हम यह जान जाते है कि हमारा लक्ष्‍य क्‍या है। आत्मिक विकास अस्‍पष्‍ट होना बंद हो जाता है। यह आत्‍मा के फल के नौ पहलूओं को हमारे चरित्र में लाने का एक प्रक्रम है।

और जब हम अपने आप को इस प्रक्रम में सम्मिलित कर लेते है तो हम जीवन का एक सबसे बड़ा पाठ सीख लेते है। परमेश्‍वर के द्वारा दी गयी जीवन की एक व्‍यवस्‍था संचालित हो जाती है। जब आत्‍मा का फल विकसित होता है तो हम सीखते है कि परमेश्‍वर के द्वारा दी गयी परिक्षाओं से हम कितनी आसानी से निकल सकते है। हम आत्मिक रूप से निराश होने की पुरानी भावनाओं खो देते है। हम सत्‍य में जो जीवन जीते है उसमें कोई असन्‍तोष नही रहता है और हमारी आत्मिक दिशा अस्‍पष्‍ट नही रहती है। हम एक आश्‍चर्यजनक निष्‍कर्श पर पहुचते है कि सच्‍चाई में जीवन सबसे अधिक सन्‍तुष्‍ट और सम्‍पूर्ण जीवन है।

आशा है कि इस पुस्‍तक से आपका यह निष्‍कर्श मजबूत होगा। या इस ओर जाने में आपको सहायता मिलेगी।

अन्तिम बात – समृद्धि का धर्मसिद्धान्‍त

आत्मिक जीवन के इस अध्‍याय को समाप्‍त करने से पहले एक और अन्तिम बात मैं कहना चाहता हूं। यह सच है कि जब हम एक जरूरी आवश्‍यक बात की ओर अपना ध्‍यान केन्द्रित करते है तो परमेश्‍वर हमारी देखभाल करता है। लेकिन लोगों के विचार इससे कही आगे जाते है और ऐसे दावें किये जाते है कि आत्मिक जीवन हमारे जीवन में हर चीज को बहुतायत से लेकर आयेगा - अब!

यह समृद्धि के धर्मसिद्धान्‍त के नाम से जाना जाता है। दावा यह है कि यदि हम अपने आप को परमेश्‍वर के इच्‍छा के अनुसार लेकर चलते है तो वह हम पर आशीषों की वर्षा करेगा और हमें धनी, स्‍वस्‍थ, आकर्षक और आत्‍मविश्‍वासी बना देगा।

यह विचार कि परमेश्‍वर के पीछे चलने से आप सुपरमेन या सुपरवूमेन बन जाओगे, बहुत ही आकर्षक है। लेकिन यह परमेश्‍वर की प्रतिज्ञा नही है बल्कि अमेरिका के लोगों का सपना है। टेलीविजन पर प्रचार करने वाले अमेरिका और कनाडा के बहुत से प्रचारकों का यह संदेश है- ऐसे लोग जो टेलीविजन चेनलों की शुरूआत कर रहे है। और वे चर्च के एक निश्चित भाग में लोगों को इकट्ठा कर रहे है।

यह ऐसा लगता है कि जैसे बाईबल का धर्म एक ऐसी चतुर विज्ञापन कम्‍पनी के हाथों में चला गया है जो मसीहत को बाजार में बेचने के अच्‍छे तरीके जानती है। जो शायद उचित नही है। सन्‍देश यह है: यदि आप अपने लिए अच्‍छा करना चाहते है, तो जैसा बनना चाहते है वैसा ही सपना देखें, और तब मसीहत आपके लिए है। ‘परमेश्‍वर चाहता है कि आप धनी हो’ यह एक बेनर है जिसके नीचे लोग चलते है।

दूसरे सबसे अधिक आकर्षित और पसन्‍द किये जाने वाले झूठों के समान ही इसमें में सच्‍चाई का कुछ अंश है। इसमें कोई सन्‍देह नही है कि आत्मिक विमाओं को जोडने से हमारे जीवन की गुणवत्‍ता में एक बड़ा सुधार होता है, लेकिन हमें कोई सुपरस्‍टार बन जाने की कल्‍पना नही करनी चाहिये।

पवित्रशास्‍त्र हमसे जिस सन्‍तुष्‍ट और सम्‍पूर्ण जीवन का वायदा करता है वह उस दिशा में नही है। क्‍योकि उस रास्‍ते पर मुश्किल से ही सन्‍तोष और परिपूर्णता मिल पाती है। इसीलिए मैने जब अच्‍छे जीवन के लिए आवश्‍यक दस बातों के बारे में कहा तो मैंने कहा पर्याप्‍त भोजन और पैसा, अच्‍छा स्‍वास्‍थ्‍य और सम्‍बन्‍ध आदि, ना कि बेसुमार चीजें।

सामान्‍य होने पर

आत्‍मा के फलों के विकास से बनने वाला मसीह चरित्र हमें कोई सुपर व्‍यक्ति नही बनाता है बल्कि यह हमें सक सामान्‍य व्‍यक्ति बनाता है। “ओह”, क्‍या कहा एक सामान्‍य व्‍यक्ति, मुझे यह जरा भी अच्‍छा नही लगा” “एक सामान्‍य व्‍यक्ति बनने में क्‍या भला है?” “आत्‍मा के फल यदि मुझे एक सामान्‍य व्‍यक्ति बना देते है तो मुझे क्‍या उत्‍साह होगा?” साधारण और सामान्‍य बनना कौन चाहेगा? क्‍या हर कोई कुछ विशेष बनना नही चाहता है?

मुझे सामान्‍य होने का एक जुनून है। मैं सोचता हूं कि अधिक उत्‍साह के साथ सामान्‍य होने का लक्ष्‍य रखना चाहिये। वास्‍तव में मैं चाहता हूं कि हम सब को अधिक सामान्‍य होना चाहिये। मेरा यह विश्‍वास इसलिए है क्‍योंकि बाईबल कहती है कि, सामान्‍य अधिक महिमामय होता है। इसमें कोई सन्‍देह नही है कि अधिकांश लोग उतने सामान्‍य नही होते है जितना परमेश्‍वर चाहता है।

नीतिवचन बताता है कि, “मुझे न तो निर्धन कर और न धनी बना; प्रतिदिन की रोटी मुझे खिलाया कर। ऐसा न हो, कि जब मेरा पेट भर जाए, तब मैं इन्‍कार करके कहूं कि यहोवा कौन है? या अपना भाग खोकर चोरी करूं, और अपने परमेश्‍वर का नाम अनुचित रीति से लूं।” (नीतिवचन 30:8,9) यह जीवन में पैसा और भोजन से अधिक दूसरी चीजों पर लागू होता है। यह मानक है। यही है जिसके लिए आत्‍मा के फल काम करते है। न तो घटी, न बहुतायत, बल्कि पर्याप्‍त। और हम इस बात के प्रति निश्चित होंगे कि परमेश्‍वर जो हमें पर्याप्‍त दे रहा है वह उसकी कोई कंजूसी नही है।

मुझे यकीन है कि परमेश्‍वर को हमें बहुतायत से आशिषित करना पसन्‍द है। वह जानता है कि अपने बच्‍चों को अच्‍छी चीजें कैसे देनी है। और वह हमें उतना देता है जितना हमारे लिए आवश्‍यक है, और जिससे हमारा चरित्र खराब ना हो। जैसे यीशु ने कहा, “तुम में से ऐसा कौन मनुष्‍य है, कि यदि उसका पुत्र उस से रोटी मांगे तो वह उसे पत्‍थर दें? वा मछली मांगे, तो उसे सांप दें?” (मत्‍ती 7:9-10) तो फिर हम अपने प्रेम करने वाले पिता से कम मिलने की उम्‍मीद क्‍यों करनी चाहिये? वास्‍तव में सामान्‍य, जीवन के अधिकांश क्षेत्रों में निर्वाह स्‍तर से काफी ऊपर है।

इसलिए मैं सामान्‍य हूं। मैं पैसे में, सम्‍पत्ति में, आकर्षन और योग्‍यता (हालांकि कोई समस्‍या नही है) में अति आशिषित नही हूं कि मैं अपने परमेश्‍वर को भूल जाऊ; या इतना कम आशिषित भी नही हूं कि मैं दुखी होकर परमेश्‍वर की आलोचना करूं।

आत्‍मा के फल हमें कोई सुपर व्‍यक्ति नही बनाते है, बल्कि ये हमें परमेश्‍वर दृष्टि में सामान्‍य व्‍यक्ति बनाते है।

इसलिए हम सामान्‍य से कम क्‍यों रहे? वास्‍तव में सामान्‍य अपने आप में विशेष है। सामान्‍य होना अति सफल होना है। यहां तक कि जीवन के कुछ पहलूओं में बहुतायत से आशीष मिलती है - लेकिन आत्मिकता के पथ पर चलने का यह उद्देश्‍य नही है। जब हम एक जरूरी चीज के द्वारा मिलने वाले वास्‍तविक सन्‍तोष और सम्‍पूर्णता को प्राप्‍त करने की ओर बढते है तो ये सह-उत्‍पाद के रूप में आ सकते है। लेकिन तो भी, भौतिक सफलता एक परीक्षा के रूप में भी आ सकती है।

मैं जानता हूं कि यह एक पुरानी कहावत है कि पैसे से खुशी नही मिलती है लेकिन इससे यह कम सच नही होता है। सफलता से हताहत एक बड़ी भीड़ है। सफलता में सबकुछ है- जिसमें यह एक व्‍यर्थ की कहावत भी है जो कहती है, “क्‍या बस इतना ही है?” और जब तक उनके पास धन और सफलता से बेहतर कुछ ओर नही होता है वे आनन्‍द लेने के लिए परेशान रहते है।

सबसे बेहतर यह है कि अपने चरित्र के गुणों को बेहतरीन बनाने का लक्ष्‍य रखें। जो, सुपर सामान्‍य, दिखता है उसके लिए नही बल्कि जो सामान्‍य है उसके लिए कार्य करें। यह पुस्‍तक समृद्धि के धर्मसिद्धान्‍त के द्वारा सपुरस्‍टार बनने के विषय में नही है। यह पुस्‍तक उनके लिए है जो परमेश्‍वर की ओर से सामान्‍यता प्राप्‍त करना चाहते है। ऐसे असामान्‍य बुद्धिमान लोग एक दिन, “तारोंकी नाई प्रकाशमान होंगे।” (दानिय्येल 12:3)

पानी की नदियों के द्वारा सींचे गये एक वृक्ष के समान

एक फल लाने वाला वृक्ष सार्थक होता है। यह कुछ काम आने वाली चीज देता है। यह हमें खाने के लिए कुछ देता है जिससे हम स्‍वस्‍थ्‍य और तरोताजा रहते है। ऐसा एक वृक्ष इसलिए भी महत्‍वपूर्ण है क्‍योंकि यह अपनी ही जाति के अन्‍य वृक्षों को पैदा करता है। जैसा हम जानते है फल न लाने वाला वृक्ष का अन्‍त हो जाता है।

फल से लदे हुए वृक्ष आखों के साथ साथ पेट के लिए भी एक दावत होते है। फल से भरा हुआ एक नांरगी का उपवन क्‍या ही अदभुत लगता है! सेव की बम्‍पर फसल से पहले आने वाले रगींन नजारे की क्‍या बात है! फल देखने में अच्‍छे होते है, खाने में अच्‍छे होते है और ये आपके लिए अच्‍छे होते है।

ये बातें उत्‍पत्ति के 1 और 2 अध्‍याय में है, जब पहले आदम और स्‍त्री के लिए “यहोवा परमेश्‍वर ने पूर्व की ओर अदन देश में एक वाटिका लगाई” और “और यहोवा परमेश्‍वर ने भूमि से सब भांति के वृक्ष, जो देखने में मनोहर और जिनके फल खाने में अच्‍छे है उगाए....” (उत्‍पत्ति 2:9)

दूसरी तरफ जो वृक्ष फल नही लाता वह व्‍यर्थ है। विशेष रूप से जब यदि आपका भोजन और जीविका ऐसे किसी वृक्ष पर निर्भर हो। ऐसे में आप इस वृक्ष को उखाडकर इसके स्‍थान पर कुछ उपयोगी वृक्ष लगा सकते है। बिना फल के इस वृक्ष को रखने का कोई औचित्‍य नही है। यह बात समझने के लिए आपको कोई बहुत ज्‍यादा बागवानी की समझ होने की आवश्‍यकता नही है। एक किसान ऐसा निर्देश देता है कि फल ना लाने वाले वृक्ष को थोडा अधिक समय दें और यदि इसके बाद भी वह कम फल दे या ना दें तो समझदारी इसी में है कि उसको उखाड दें। अपने लिए एक स्‍वस्‍थ्‍य पेड़ लगाये। वास्‍तव में यीशु ने भी एक दृष्‍टान्‍त दिया।

This is section 3 from ‘The fruit of the Spirit’, by Colin Attridge

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