तेरा वचन मेरे पांव के लिये दीपक, और मेरे मार्ग के लिये उजियाला है। भजन संहिता 119:105
मसीह के राजदूत (Ambassadors for Christ)
आज हम इस तरह के संसार में रह रहे है कि हम आसानी से ऐसे सांसारिक मामलों में फंस जाते है जिनके प्रति हम सावधान नही रहते है। हमें लूत के उदाहरण पर ध्यान देना चाहिये, जो दुष्ट लोगों की गन्दी बातचीत से परेशान था। पतरस हमें बताता है कि लूत, “उन के बीच में रहते हुए, और उनके अधर्म के कामों को देख देखकर, और सुन सुनकर, हर दिन अपने मन को पीड़ित करता था।” (2 पतरस 2:8)
पौलुस कहता है कि हमारा युद्ध इस संसार के “अन्धकार के हाकिमों से और उस दुष्टता की आत्मिक सेनाओं से है।” (इफिसियों 6:12)
उच्च पदों की दुष्टता आज भी उतनी ही सत्य है जितनी यह पौलुस के समय में थी और यह भी एक कारण है कि हम मसीह के सैनिक होने के कारण इस दुनिया के मामलों में सम्मिलित नही होते है।
हमारे सदस्य ने पिछले किसी चुनाव में हिस्सा नही लिया। जब प्रभु यीशु मसीह लोहे के डण्डे के साथ इस संसार पर राज्य करने आयेंगे तो उन्हें अपना शासन स्थापित करने के लिए कोई अभियान चलाने की आवश्यकता नही होगी, वे शक्ति के साथ इस संसार के राज्यों को ले लेंगे। आज उनकी पार्टी के जो सदस्य है वे बड़ी ही शान्ति के साथ उन लोगों को तैयार कर रहे है जो प्रभु यीशु मसीह के आने पर उनकी शासन करने वाली पार्टी के सदस्य होंगे। यह अकल्पनीय लगता है, कि मसीह की पार्टी के विश्वासी सदस्य किसी ऐसी दूसरी राजनैतिक पार्टी में हिस्सा ले सकते है जिसको मसीह आने पर गिरा देगा। एक ही समय पर दो राष्ट्रों की सेवा करना असम्भव है। यदि हम मसीह के सैनिक है तो हम किसी दूसरे सेनापति की सेवा या उसको चुने जाने में सहायता नही कर सकते है। यदि हम एक स्वर्गीय राष्ट्र को खोजते है तो हमें मान लेना चाहिये कि हम “पृथ्वी पर परदेशी और बाहरी है।” (इब्रानियों 11:13) जैसे हमारे विश्वासी पुरखों ने मान लिया और वे विश्वास ही की दशा में मर गये
पौलुस बताता है कि “हम मसीह के राजदूत हैं।” (2 कुरिन्थियों 5:20) हम जानते है कि एक राजदूत जब परदेश में रहता है तो उस देश के कानून का बड़ी ही सावधानी से पालन करता है लेकिन वह एक पल के लिए भी उस देश के आन्तरिक राजनैतिक मामलों में हस्तक्षेप नही करता है। उसको राजनैतिक मामलों से दूर रहते हुए भी, जो पार्टी सत्ता में है उसके नियमों का पालन करना चाहिये और उसे हमेशा याद रखना चाहिये कि वह जिस देश में रह रहा है वह वहां का निवासी नही है बल्कि अपने देश के प्रतिनिधि के रूप में वहाँ रह रहा है। हम इस संसार के नही है। और इसलिए पौलुस हमें राजदूत कहता है। यीशु ने कहा, “यदि तुम संसार के होते, तो संसार अपनों से प्रेम रखता; परन्तु इस कारण कि तुम संसार के नहीं, वरन् मैंने तुम्हें संसार में से चुन लिया हैं, इसी लिये संसार तुम से बैर रखता हैं।” (यूहन्ना 15:19)
यहोशू ने अपने लोगों को बताया कि, “यदि यहोवा की सेवा करनी तुम्हें बुरी लगे, तो आज चुन लो कि तुम किस की सेवा करोगे।” (यहोशू 24:15) यहाँ यहोशू ने अमालेकीयों के विषय में यह बात कही, हम अमालेकियों के स्थान पर आज की गणतांत्रिक और लोकतान्त्रिक पार्टियों को रख सकते है। आमोस एक प्रश्न पूछता है कि, “यदि दो मनुष्य परस्पर सहमत न हों; तो क्या वे एक संग चल सकेंगे?” (अमोस 3:3) तो क्या एक मसीह भाई या बहन इस संसार के साथ चल सकता है? मसीह का मंच, आज के राजनैतिक अखाडें में नही मिल सकता है। हमें यहोशू के साथ कहना चाहिये कि, “मैं तो अपने घराने समेत यहोवा ही की सेवा नित करूँगा।” (यहोशू 24:15)
वे सब लोग जो यीशु के आने की प्रतिक्षा कर रहे है, वे इस संसार के राज्यों में अपने आप को व्यस्त करने से इंकार करेंगे क्योंकि यीशु ने उन्हें “वध होकर अपने लहू से हर एक कुल और भाषा और लोग और जाति में से परमेश्वर के लिये लोगों को मोल लिया है।” (प्रकाशितवाक्य 5:9) और उन्हें “परमेश्वर के लिये एक राज्य और याजक बनाया; और वे पृथ्वी पर राज्य करते है।” (प्रकाशितवाक्य 5:10)
पौलुस पूछता है कि, “धार्मिता और अधर्म का क्या मेल-जोल? या ज्योति और अन्धकार की क्या संगति? और मसीह का बलियाल के साथ क्या लगाव? या विश्वासी के साथ अविश्वासी का क्या नाता?... इसलिए प्रभु कहता है, ‘उनके बीच में से निकलो और अलग रहो।’” (2 कुरिन्थियों 6:14-17)
सत्य यही है कि सर्वशक्तिमान ईश्वर मनुष्यों के इन राज्यों में शासन कर रहा है और जिसको भी वह चाहता है उसी को यह सत्ता सौंप देगा, लेकिन इसके लिये उसको हमारे मतदान की सहायता नही चाहिये और न ही हम यह जानते है कि वह किसको निर्धारित करेंगा या किसको सत्ता से हटायेगा। “आज आप चुन ले कि आप किसकी सेवा करेंगे।” (यहोशू 24:15)
‘मसीह के राजदूत’ (Ambassadors for Christ) is taken from ‘Minute Meditations’ by Robert J. Lloyd
इस्राएल से सम्बन्धित भविष्यवाणी (Prophecy concerning Israel)
बाईबल की अधिकांश भविष्यवाणियां परमेश्वर के लोगों और परमेश्वर की भूमि से सम्बन्धित है। उनमें से बहुत सी भविष्यवाणियां पूरी हो चुकी है। भविष्यवाणियों के पूरे होने से यह बात निश्चित हो जाती है कि ये भविष्यवाणियां परमेश्वर की प्रेरणा से की गयी और यह कि परमेश्वर दुनिया में काम कर रहा है।
मुख्य पद: यहेजकेल 37:1-14, 24-28
यहेजकेल ने लगभग 590 ईसा पूर्व, जब इस्राएल बाबुल की बन्धुवाई में था, उस समय इस्राएल के विषय में भविष्यवाणी की थी।
उसने इस्राएल के विषय में बहुत सी भविष्यवाणियां की थी। उनमें से एक भविष्यवाणी हड्डियों के सपने के द्वारा की गयी और यह ऐसी भविष्यवाणी है जिसकी व्याख्या बहुत ही अच्छी तरह से की गयी है।
- इस सपने की मुख्य बातों को सक्षिप्ंत में लिखिए।
- भविष्यवाणी का कौन सा भाग पूरी हुआ?
- भविष्यवाणी का शेष भाग कब पूरा होने की आशा है?
- जब परमेश्वर कहता है कि, “मैं तुम में सांस समाऊंगा और तुम जिओगे” तो इसका क्या अर्थ है?
- यहेजकेल 37:24-28 और लूका 1:30-33 में कितनी समानता है?
इस्राएल का इतिहास
1400 ईसापूर्व | इस्राएल ने कनान पर चढाई कर उसको जीत लिया और एक राष्ट्र के रूप में गठित हुआ। |
1000 ईसापूर्व | राजा दाऊद। |
605 ईसापूर्व | यहूदियों को बंधुआई में बाबुल ले जाया गया। |
538 ईसापूर्व | यहूदी येरूशलेम में वापिस आये और शहर को बनाया। |
70 ईसवी | रोमियों ने येरूशलेम पर कब्जा किया। यहूदी सारी दुनिया में तितर-बितर हो गये। |
1882 ईसवी | रूस में सामूहिक हत्याकाण्ड के परिणामस्वरूप यहूदियों की वापिसी की पहली लहर। |
1897 ईसवी | स्वीजरलैण्ड के बेसेल में पहली सिय्योनी कांग्रेस। |
1900 ईसवी | तुर्की के अधिपत्य में; पिलिस्तिन में मुट्ठी भर यहूदी। |
1904 ईसवी | यहूदियों की वापिसी की दूसरी लहर। |
1917 ईसवी | ब्रिटिश का पिलिस्तिन पर कब्जा; यहूदी ने वहां जाना शुरू किया। |
1945-1948 ईसवी | द्वितीय विश्व युद्ध में बचे हुए यहूदी पिलिस्तिन में चले गये। |
1948 ईसवी | इस्राएल राज्य का गठन। |
1948 ईसवी | अरब देशों के साथ बहुत से युद्ध; इस्राएल ने अपनी स्वतन्त्रता बनाये रखी; बड़ी सख्ंया में यहूदी वापिस आये। |
1994 ईसवी | अरब देशों के साथ शान्ति का समझौता। |
इस्राएल के विषय में भविष्यवाणियां
यहेजकेल 37 में दी गयी यह भविष्यवाणीं, इस्राएल के विषय में विस्तारपूर्वक की गयी, दर्जनों भविष्यवाणियों में से एक है। किसी दूसरे राष्ट्र की तुलना में इस्राएल के विषय में अधिक भविष्यवाणिंया की गयी है, ऐसा इसलिए है क्योंकि यहूदी परमेश्वर के विशेष लोग है। इस्राएल के इतिहास को पहले से ही बता दिया गया था और इसमें 20वीं शताब्दी में घटित घटनाऐं भी शामिल थी। इस्राएल के लोगों, यहूदियों, का अस्तित्व और बाईबल में वर्णित भूमि में उनके राष्ट्र का अस्तित्व, इस बात के प्रमाण है कि बाईबल परमेश्वर के द्वारा प्रेरित है।
सब भविष्यवक्ताओं के द्वारा परमेश्वर ने इस बात को दोहराया कि वह पुराने विश्वासी लोगों से की गयी प्रतिज्ञाओं को याद रखेगा। उनकी दुष्टता के बाद भी, अन्त में, वह उनको उनकी अपनी भूमि में लेकर आयेगा। जैसे यिर्मयाह 30:3; यहेजकेल 36:22-24।
विश्व के मध्य पूर्व क्षेत्र की स्थिति बहुत ही जटिल है क्योंकि दोनों यहूदी और अरबी लोग हजारों वर्षो से वहां है, दोनों ही अब्राहम के वंशज है, और दोनों ने ही परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं को प्राप्त किया। लेकिन तो भी, परमेश्वर ने इसे साफ रीति से बताया है कि इस्राएल की भूमि यहूदियों की है (उदाहरण के लिए ओबद्याह की पुस्तक देखें)।
मध्य पूर्व में शान्ति के सारे मानवीय प्रयास शीघ्र या देर से असफल होंगे। इस क्षेत्र में शान्ति के प्रयास में सबसे बड़ा रोड़ा येरूशलेम शहर है। परमेश्वर ने जकर्याह भविष्यवक्ता के द्वारा येरूशलेम शहर के विषय में कहा कि:
“देखो,मैं यरूशलेम को चारों ओर की सब जातियों के लिये लड़खड़ा देने के मद का कटोरा ठहरा दूँगा; और जब यरूशलेम घेर लिया जाएगा तब यहूदा की दशा भी ऐसी ही होगी। उस समय पृथ्वी की सारी जातियाँ यरूशलेम के विरूद्ध इकट्ठी होंगी, तब मैं उसको इतना भारी पत्थर बनाऊँगा, कि जो उसको उठाएँगे वे बहुत ही घायल होंगे।” (जकर्याह 12:2-3)
इस्राएल के विषय में कुछ भविष्यवाणियां
1. इस्राएल राष्ट्र के जन्म की भविष्यवाणी परमेश्वर के द्वारा अब्राहम से की गयी थी। | ||
उत्पत्ति 15 | 2000 ईसा पूर्व | |
अब्राहम के वंशजों के द्वारा यह भविष्यवाणी पूरी हुयी। | ||
2. इस्राएल के अनाज्ञाकारी होने, तितर बितर होने, संरक्षण और पुर्नगठित होने की भविष्यवाणी मूसा के द्वारा की गयी। | ||
व्यवस्थाविवरण 28 | 1500 ईसा पूर्व | |
पूरी हुयी: 605 र्इसा पूर्व बाबुल की बंधुवाई में गये, 538 ईसा पूर्व वापिस अपनी भूमि में आये। पूरी हुयी: 70 ईसवी में तितर-बितर हुए, 20 वीं शताब्दी में वापिस अपनी भूमि में आये, 1948 में राष्ट्र पुर्नगठित हुआ। |
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3. इस्राएल लगातार परमेश्वर के अस्तित्व का एक गवाह रहा। | ||
यशायाह 43:1-2,10-12 | 700 ईसा पूर्व | |
4. विश्वभर में तितर बितर होने के बाद भी इस्राएल संरक्षित रहा। | ||
यिर्मयाह 30:10-11; 31:10 | 600 ईसा पूर्व | |
पूरी हुयी: यहूदियों का सम्पूर्ण नाश करने के बहुत से प्रयास किये गये लेकिन वे फिर भी बचे रहे, जैसे – स्पेन के अत्याचार के परीक्षण, रूस का सामूहिक हत्याकाण्ड, नॉजीयों के द्वारा दी गयी बलि। सम्पूर्ण इतिहास में हम देखते है कि किस प्रकार से परमेश्वर ने अपने बचे हुए लोगों को संरक्षित किया। | ||
5. वे अपनी भूमि में वापिस आयेंगे और येरूशलेम पर उनका नियंत्रण होगा। | ||
लूका 21:24-31 | 30 ईसवी | |
पूरी हुयी: 1948 में इस्राएल राष्ट्र फिर से गठित हुआ, 1967 में येरूशलेम पर उनका पुन: अधिकार हो गया। |
विचारणीय पद
- यहेजकेल 36:16-38 को पढ़े।
- भविष्यवाणी के उस भाग को लिखिए जो पूरी हो चुकी है।
- भविष्यवाणी के उस भाग को लिखिए जो पूरी नही हुयी है।
- यहेजकेल के 37 वें अध्याय में वर्णित सूखी हड्डियों की भविष्यवाणी से आपकी उपरोक्त दोनों बातें किस तरह से मेल खाती है?
- यहां इस्राएल के विषय में कुछ अन्य भविष्यवाणियां है। इन पर विचार किजिये कि क्या ये पूरी हो चुकी है, यदि नहीं तो वे कब पूरी होंगी?
- भजन संहिता 83
- योएल 3:1-17
- मीका 4:9-13
- जकर्याह 13:8-9; 14:1-5
- लूका 21:20-24
- यशायाह 19:23-25 को पढ़े। मध्यपूर्व क्षेत्र में शान्ति स्थापित करने के लिए यहां क्या सलाह दी गयी है?
अन्य खोज
- इस बात को खोजिये कि 1967 के “छ: दिन के युद्ध” में क्या हुआ। जब इस्राएल ने येरूशलेम को अपने कब्जें में ले लिया तो कौन सी भविष्यवाणियां पूरी हुयी?
- भजन संहिता के 83 अध्याय में उन राष्ट्रों की एक सूचि दी गयी है जो इस्राएल को नाश करना चाहते है। नक्शे और बाईबल शब्दकोष को प्रयोग करके इन स्थानों के आधुनिक नामों को खोजिये। यह सम्भव है कि ये वे राष्ट्र हो जो यीशु मसीह के पुन: आगमन से पहले येरूशलेम पर आक्रमण करें।
‘इस्राएल से सम्बन्धित भविष्यवाणी’ (Prophecy concerning Israel) is from ‘The Way of Life’, edited by Rob J. Hyndman
आप क्या चाहते है या आपके लिए क्या आवश्यक है? (1)
What you need or what you want? (Part 1)
मुख्य अध्याय: भजन संहिता 77
भजनकार कष्ट में है, दुविधा में है और अत्यधिक पीड़ा में है। क्या कभी न बदलने वाला ईश्वर बदल गया है? लेकिन जब वह ईश्वर के पुराने आश्चर्यजनक कार्यो का अवलोकन करता है तो उसको पता चलता है कि ईश्वर के कार्य वास्तव में महान है। और यह भी कि ईश्वर हमारा चरवाहा है और हमें ठीक वैसा ही चारा देता है जिसकी हमें आवश्यकता है।
चरवाहा और उसकी भेड़ो का उदाहरण, हमारे लिए ईश्वर के विधान का, सबसे अधिक सम्पूर्ण और अन्योक्तिपरक उदाहरण है। यह एक ऐसा दृश्य है जिसमें बाईबल का हर एक भाग निहित है, उत्पत्ति अध्याय 4 में हाबिल से लेकर प्रकाशितवाक्य अध्याय 22 के मेमने तक। शायद हमने इस विषय पर बहुत अधिक सुना हो या पढ़ा हो, और इन अध्ययनों पर हमारा स्वंय का चिन्तन भी इस ओर संकेत करता हो, और आगे इस सुन्दर दृश्य की ओर हमारा ध्यान केन्द्रित करेगा।
लेकिन आईये मत्ती अध्याय 10 के कुछ पदों की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करें। यहां यीशु अपने चेलों को एक यात्रा पर भेज रहे है और उन्हें बताते है कि उन्हें क्या करना है और क्या नही करना है। हम भी यीशु के चेले है और एक यात्रा पर है तो आईये हम भी इन बातों पर ध्यान दें कि हमें क्या करने की आवश्यकता है?
“अपने पटुकों में न तो सोना, और न रूपा, और न ताँबा रखना; मार्ग के लिए न झोली रखो, न दो कुरते, न जूते और न लाठी लो, क्योंकि मजदूर को उसका भोजन मिलना चाहिए।” (मत्ती 10:9-10)रूपया-पैसा नही, कपड़े नही, सहारे या लड़ने के लिए कोई लाठी नही, जूते नही – यह यात्रा के लिए एक अपर्याप्त शुरूआत है – लेकिन इससे हमें पता चलता है कि इनसे अधिक महत्वपूर्ण कोई चीज है जिसकी हमें आवश्यकता है।
परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने की यात्रा के लिए हमें रूपये-पैसे की आवश्यकता नही है, और न ही हमें कपड़ों की अलमारी की जरूरत है, जो कि हमें रखना पसन्द है। परमेश्वर के राज्य के मार्ग पर चलने के लिए ये सब चीजें असंगत है। न तो बिस्तर और न चलने के लिए सहारे के लिए या रक्षा के लिए लाठी लो। यीशु कहते है कि आपको इनकी आवश्यकता नही है। (एक अन्य सुसमाचार ऐसा बताते हुए प्रतीत होता है कि उन्हें लाठी की आवश्यकता थी – लेकिन शीघ्र ही जॉचने से पता चलता है कि मूल प्रति में ऐसा नही है और बहुत से विशेषज्ञ इससे सहमत है।) “तेरे सोंटे और तेरी लाठी से मुझे शान्ति मिलती है।” (भजन संहिता 23:4) जिस सहारे और सुरक्षा की हमें आवश्यकता है वह सब परमेश्वर हमें प्रदान करता है।
हमें इस दुनिया की सुरक्षा की आवश्यकता नही है। मानवीय दृष्टिकोण से पैसे से सुरक्षा मिलती है और हम भी इस सोच से अछूते नही है। लेकिन यीशु मसीह सुनिश्चत करते है कि, न सोना, न चाँदी, न ताँबा, सुरक्षा प्रदान कर सकते है। जिस एक मात्र सच्चे परमेश्वर के लिए वे काम कर रहे है उनको केवल और केवल उसी एकमात्र पर निर्भर रहना था।
20 वीं शताब्दी भौतिकवाद का एक युग है। प्रेरित कहता है कि,
“और यदि हमारे पास खाने और पहिनने को हो, तो इन्ही पर सन्तोष करना चाहिए।” (1 तिमुथियुस 6:8)निम्न पद में क्या ही अच्छी सलाह वह हमें देता है:
“पर जो धनी होना चाहते है, वे ऐसी परीक्षा, और फंदे और बहुतेरे व्यर्थ और हानिकारक लालसाओं में फंसते है, जो मनुष्यों को बिगाड़ देती हैं और विनाश के समुद्र में डूबा देती हैं। क्योंकि रूपये का लोभ सब प्रकार की बुराइयों की जड़ हैं, जिसे प्राप्त करने का प्रयत्न करते हुए कितनों ने विश्वास से भटककर अपने आप को नाना प्रकार के दुखों से छलनी बना लिया है।” (1 तिमुथियुस 6:9-10)हम हमेशा सोचते है कि थोड़ा और, थोड़ा और। हम कभी सन्तुष्ट नही होते और हमेशा सन्तुष्ट होने के लिए एक और चीज चाहिये होती है।
“तू इन बातों से भाग, और धर्म, भक्ति, विश्वास, प्रेम, धीरज और नम्रता का पीछा कर।” (1 तिमुथियुस 6:11)सोना नही, चाँदी नही, कपड़े नही। हमें आवश्यकता है धार्मिकता, भक्तिपूर्ण सेवा, विश्वास और प्रेम की। हमें लाठी की आवश्यकता नही है – हम ऐसी लड़ाई नही लड़ते है। हम जीवन को बचाने के लिए विश्वास की भूख की लड़ाई लडते है।
इस सब बातों का वास्तविक सन्देश और दृष्टिकोण पद 17 में है,
“चंचल धन पर आशा न रखें।” (1 तिमुथियुस 6:17)पैसे की ताकत का घमण्ड मत करो। पैसे की दुनिया में “सुरक्षा” की बातें होती है और सुरक्षा का व्यापार होता है। इन चीजों में वास्तविक सुरक्षा नही है। चल या अचल सम्पत्ति हमें सुरक्षा नही दे सकती है। अनिश्चित धन पर भरोसा न रखें। उस ईश्वर पर भरोसा रखें जो सब कुछ देता है। उस की अराधना करें और भरोसा रखें जो देने वाला है ना कि उस पर जो दिया गया है। ऐसी किसी चीज पर भरोसा ना रखें जिसकी सृष्टि की गयी है बल्कि सब कुछ रचने वाले पर भरोसा रखें। नष्ट होने वाली चीजें नही बल्कि आने वाले युग के लिए विश्वास की एक अच्छी नींव रखें।
पौलुस, यीशु मसीह, ईश्वर, सब हमें बताते है कि हमारी आवश्यकता भौतिक चीजें नही है। भौतिक चीजें हमारे पास हो भी सकती है और नही भी लेकिन हमें जिसकी आवश्यकता है वह है भक्ति और विश्वास।
हम ईश्वर से प्रार्थना करते है और ईश्वर हमसे प्रेम करता है और वह चाहता है कि हम जो कुछ अपने लिये या दूसरों के लिए चाहते है उसके विषय में हम उससे बातें करें। बहुत से लोग जो यीशु के नाम से प्रार्थना करते है उनकी प्रार्थनाऐं पूरी हो जाती है। बहुतों ने आखों की रोशनी के लिए यीशु से प्रार्थना की और उन्हें आखों की रोशनी मिल गयी, लेकिन हो सकता है कि जिन्हें आखों की रोशनी पाने की इच्छा है पिता उनको वह ना दें। हो सकता है कि ईश्वर आत्मिक आखों की रोशनी देने के लिए भौतिक आखों की रोशनी ले लें।
हम अपनी इच्छाओं के अनुसार ईश्वर से प्रार्थना करते है – ईश्वर हमारी आवश्यकताओं के अनुसार हमें प्रार्थनाओं का उत्तर देता है। प्रेरितों के काम के 27 अध्याय में पौलुस उन लोगों की रक्षा के लिए ईश्वर से प्रार्थना करता है जो उसके साथ जहाज में थे। “मत डर ...परमेश्वर ने सब को जो तेरे साथ यात्रा करते है, तुझे दिया है।” (प्रेरितों के काम 27:24) पौलुस ने अपने लिये और दूसरों के लिए प्रार्थना की।परमेश्वर चाहता है कि हम उससे प्रार्थना करें। यहां जो “देना” शब्द आया है (और लूका 7:21 में आंखें देने के विषय में जो “देना” शब्द आया है) वह ईश्वर की कृपा है उसका अनुग्रह है जो उसने दिया है, ईश्वर के अनुग्रह के रूप में आंखें दी गयी; पौलुस के साथ यात्रा करने वालों को बचाने के लिए ईश्वर के द्वारा अनुग्रह प्रदान किया गया।
किस आधार पर ईश्वर हमारी इस तरह की प्रार्थनाओं को सुनता है? लूका 11:9-13, “माँगो ... ढूँढ़ों ... खटखटाओ” वाले पद, जिनको हम इससे पहले मत्ती में भी पढ़ते है, हमें बताते है कि किस आधार पर हमारी प्रार्थनायें सुनी जाती है। ऐसा लगता है कि यह एक कम्बल के विषय में है, लेकिन हमने देखा कि सम्पूर्ण प्रतिज्ञा मत्ती में कही गयी “भली बातों” पर आकर टिकती है। लूका यहां बता रहा है कि ईश्वर “पवित्र आत्मा” दे रहा है, जिसको ए.डी. नोरीस ने “आत्मा की पवित्रता” अनुवादित किया। इसलिए यहां फिर से भौतिक चीजों पर ध्यान केन्द्रित नही किया गया है। यदि हम सम्पूर्ण सच्चाई से और अधिक आत्मिक, और अधिक पवित्र, बनने के लिए ‘ढूँढ़े’, ‘माँगें’, और ‘खटखटाये’ तो इस दिशा में की गयी हमारी प्रार्थनायें सुनी जायेगी और ऊपर पिता की ओर से एक प्रतिध्वनि हमें मिलेगी कि ‘हां, आमीन!’
ईश्वर अच्छे उपहारों को रोक कर नही रखता वह उन्हें हमें देता है। हम ईश्वर के बच्चे है। जैसे हमारे बच्चे बहुत सी चीजें हमसे मांगते है लेकिन हम वे सब उन्हें नही देते है। क्योंकि कुछ चीजों की आवश्यकता नही होती, कुछ चीजें असंगत होती है, जबकि कुछ चीजें गलत और खतरनाक होती है। वैसे ही ईश्वर भी करता है क्योंकि हम उसके बच्चे है। हमें अपने बच्चों के लिए अच्छी चीजें या उपहार निर्धारित करने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए (यीशु ने भी ऐसा ही कहा), यद्यपि हम हमेशा बिल्कुल ठीक नही हो सकते है। इसके विपरीत हमारा पिता हमेशा सही होता है और हमारे और हमारी प्रार्थनाओं के विषय में हमेशा सही और उचित निर्णय लेता है।
लूका के 11 अध्याय में दिया गया दृष्टान्त इसी विषय से सम्बन्धित है।
“तब उसने उनसे कहा, ‘तुम में से कौन है कि उसका एक मित्र हो, और वह आधी रात को उसके पास जाकर उससे कहे, “हे मित्र; मुझे तीन रोटियाँ दे। क्योंकि एक यात्री मित्र मेरे पास आया है, और उसके आगे रखने के लिये मेरे पास कुछ नहीं है।” और वह भीतर से उत्तर दे, “मुझे दु:ख न दे; अब तो द्वार बन्द है और मेरे बालक मेरे पास बिछौने पर हैं, इसलिये मैं उठकर तुझे दे नहीं सकता?” मैं तुम से कहता हूँ, यदि उसका मित्र होने पर भी उसे उठकर न दे, तौभी उसके लज्जा छोड़कर माँगने के कारण उसे जितनी आवश्यकता हो उतनी उठकर देगा।’” (लूका 11:5-8)यहां मित्र का मतलब है घनिष्ठ मित्र। यह मित्रता आवश्यकता पर निर्भर थी। लेकिन यीशु मसीह ने विशेष रूप से कहा कि मित्र ने मित्रता के आधार पर प्रतिक्रिया नही की बल्कि उसने आवश्यकता के आधार पर प्रतिक्रिया की।
ठीक इसी प्रकार ईश्वर भी इस आधार पर कार्य नही करता कि हमारे उसके साथ सम्बन्ध कैसे है और इस सम्बन्ध के अनुसार हमें क्या मिलना चाहिये। बल्कि वह इस आधार देता है कि हमें किस चीज की आवश्यकता है। इसलिए हमारे परस्पर सम्बन्ध एक दूसरे की आवश्यकता पर आधारित होने चाहिये।
इस संसार को उसकी अवश्यकता थी – इसलिए ईश्वर ने अपने पुत्र को दिया। अपनी कलिसिया में और अपने पड़ोसी के साथ हमें दिन और रात इसी आधार पर सहायता करनी चाहिये कि उनकी आवश्कता क्या है न कि इस आधार पर कि हमारे उनके साथ सम्बन्ध कैसे है, और वे हमसे किस तरह की सहायता के योग्य है। ईश्वर के साथ हमारे सम्बन्ध और दिन प्रतिदिन एक दूसरे के साथ हमारे सम्बन्ध के विषय में शिक्षा देने वाला यह बहुत ही शक्तिशाली दृष्टान्त है।
तो इस प्रकार ईश्वर हमें हमारी अवश्यकता के अनुसार देता है। हमारे ना चाहने के बावजूद भी ईश्वर हमें कभी-कभी गहरा दु:ख देता है। यदि ईश्वर हमें दु:ख देता है तो हमें इसे एक अच्छा उपहार समझकर ग्रहण करना चाहिये। यहां तक कि यीशु मसीह ने भी दु:ख उठाकर सीखा –
“उद्धार के कर्ता को दु:ख उठाने के द्वारा सिद्ध करे।” (इब्रानियों 2:10)और इब्रानियों 5:8 में हम पढ़ते है:
“पुत्र होने पर भी उसने दु:ख उठा-उठाकर आज्ञा माननी सीखी।”तो यदि यीशु मसीह को इन दु:खों की आवश्यकता थी तो हमें कितनी अधिक होगी।
यही बात दाऊद भी भजन संहिता 119:67, 71, 75 में कहता है। यह ईश्वर भक्त व्यक्ति कहता है कि,
“उससे पहले कि मैं दु:खित हुआ, में भटकता था; परन्तु अब मैं तेरे वचन को मानता हूँ।” (भजन संहिता 119:67)और पद 71 में वह कहता है कि,
“मुझे जो दु:ख हुआ वह मेरे लिये भला ही हुआ हैं।” (भजन संहिता 119:71)पद 75 में वह कहता है कि उसके लिये दु:ख परमेश्वर पर विश्वास का प्रमाण है।
ईश्वर अपने कार्य को पूरा करेगा और इसलिए वह विश्वास के साथ हमारे जीवन में कार्य कर रहा है - यह इस बात का प्रमाण है कि वह हमारा पिता है और वह हमसे प्यार करता है।
“क्योंकि प्रभु जिससे प्रेम करता है, उसकी ताड़ना भी करता हैं, और जिसे पुत्र बना लेता है, उसको कोड़े भी लगाता हैं।” (इब्रानियों 12:6)ईश्वर ऐसा क्यों करता है? इब्रानियों 12 अध्याय का पद 11 बताता है कि वह ऐसा इसलिए करता है ताकि हम इसके द्वारा अभ्यस्त हो जाये। दु:ख पिता के हाथ में एक ऐसा औजार है जिसको हम नही चाहते है; लेकिन प्रार्थना करते है कि हम यीशु के जैसे बन जाये और इसलिए हम इस दु:ख को प्राप्त करते है। “ईश्वरीय दु:ख” – मनफिराव को लाता है। जबकि इस संसार का दु:ख, चिन्ता और उदासी को लाता है। लेकिन ईश्वर का दु:ख शक्ति प्रदान करने वाला है,
“इसलिए ढीले हाथों और निर्बल घुटनों को सीधे करो।” (इब्रानियों 12:12)और एक बुद्धिमान व्यक्ति लिखता है कि, “यह बड़े दुख का काम है जो परमेश्वर ने मनुष्यों के लिये ठहराया है कि वे उस में लगें।” (सभोपदेशक 1:13)
और फिर “हँसी से खेद उत्तम है, क्योंकि मुँह पर के शोक से मन सुधरता है।” (सभोपदेशक 7:3)
दु:ख, कष्ट और संघर्ष वे चीजें नही है जो हम ईश्वर से चाहते है लेकिन तो भी ये चीजें हमें उसी ओर ले जाती है जो हम चाहते है और वह है – परमेश्वर का राज्य। हम परमेश्वर के राज्य तक जाने वाले सबसे अच्छे मार्ग को नही जानते लेकिन ईश्वर जानता है इसलिए वह हमें अपने समतल या ऊबड-खाबड़ रास्तों से लेकर जाता है। ईश्वर विश्वासयोग्य है कि वह हमें अपने राज्य में ले जाने के लिए हर एक आवश्यक कार्य करता है। और यदि इसके लिए हमें अपने जीवन की सबसे प्यारी चींज को त्यागना आवश्यक है तो वह इसको हमसे ले लेगा ताकि हम उसके राज्य में जा सकें। आखिरकार उसने अपना इकलौता प्रिय पुत्र दे दिया। क्यों? ताकि हम नाश ना हो और ताकि हम उसके राज्य में प्रवेश कर सकें। जो हमारे लिये सबसे मूल्यवांन और महिमामय उपहार है।
‘आप क्या चाहते है या आपके लिए क्या आवश्यक है? (1)’ (What you need or what you want? Part 1) is from ‘Caution! God at work’, by Tim Galbraith
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