तेरा वचन मेरे पांव के लिये दीपक, और मेरे मार्ग के लिये उजियाला है। भजन संहिता 119:105
काम बोलते है (Actions speak)
एक बहुत ही पुरानी कहावत है कि “मनुष्य के कामों की आवाज उसके शब्दों से अधिक होती है” तो जब इस बात की सच्चाई पर कोई प्रश्न नही है तो हम अपनी एक बात को अपने शब्दों के द्वारा और दूसरी बात को अपने कामों के द्वारा कहेगें।
हम प्राय: सोचते है कि हम किसको बेवकूफ बना रहे है? परमेश्वर को तो बिल्कुल नही, तो क्या अपने परिवार या दोस्तों को, या शायद हम खुद अपने आप से मजाक कर रहे है।
हम कह सकते है कि सच्चाई हमारे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण चीज है और हम परमेश्वर से अपने सम्पूर्ण मन से प्रेम करते है, लेकिन जब कभी हमें बाईबल की कक्षा में जाना होता है या किसी विषय पर बाईबल से बोलने का अवसर मिलता है तो हम या तो बहुत ही थके हुए होते है या बहुत ही व्यस्त होते है या किसी महत्पूर्ण कार्य के लिए कही जा रहे होते है।
शायद कभी हम किसी से कहते है कि टीवी एक बहुत ही अच्छी खोज है लेकिन समय की बहुत ही बडी बर्बादी है इसलिए हम टीवी नही देखते है, लेकिन तो भी जब कोई किसी विशेष कार्यक्रम को देखने के लिए हमसे कहता है तो हम उसको देखते है और कुछ समय बाद उस कार्यक्रम के विषय में बातचीत करते हुए अपने आप को पाते है।
प्राय: हमारे पास किसी कार्य को करने या ना करने का एक वास्तविक कारण होता है, और इन सभी कारणों को हम उन बहानों के रूप में अपने पास रखते है कि हमने कोई काम क्यों किया या क्यों नही किया। जब ऐसे ही बहाने और कारण देते हुए हम किसी बच्चे को दखते है तो हमें बुरा लगता है लेकिन बच्चे इसे करते है क्योंकि यह उनके लिए सबसे आसान तरीका है लेकिन क्या यह हमारे लिए सही है क्या हम बड़े नही हो गये है? पौलुस कहता है कि, “जब मैं बालक था, तो मैं बालकों की नाई बोलता था, बालकों का सा मन था, बालकों की सी समझ थी; परन्तु जब सियाना हो गया, तो बालकों की बातें छोड़ दी।”
हमें अपने आप के प्रति ईमानदार होना चाहिए। हमें इस बात को मानना चाहिए कि हमारे कामों की आवाज हमारी उन बातों से अधिक होती है जो हम कहते है।
किसी से यह कहने की आवश्यकता नही है कि हम परमेश्वर से अपने सम्पूर्ण मन से प्रेम करते है, क्योंकि यदि हम वास्तव में ऐसा करते है तो यह हमारे कामों और कामों को करने के तरीकों से स्पष्ट हो जायेगा। इसके विपरीत हम अपने घर की छत से चिल्लाकर यह बोल सकते है हम अपने प्रभु से कितना प्रेम करते है तो भी इससे किसी को विश्वास नही होगा यदि हमारे काम ऐसे हो जो दिखाते हो कि परमेश्वर हमारे जीवन से बाहर है।
यही बात याकूब बताता है जब वह कहता है कि, “बरन कोई कह सकता है कि तुझे विश्वास है, और मैं कर्म करता हूं; तू अपना विश्वास मुझे कर्म बिना तो दिखा; और मैं अपना विश्वास अपने कर्मो के द्वारा तुझे दिखाऊंगा” हमें मरा हुआ नही बल्कि जीवित विश्वास रखना चाहिए। बिना काम के विश्वास मरा हुआ है। प्रभु यीशु मसीह इसे दूसरी तरह से बताते है कि, “उन के फलों से तुम उन्हें पहिचान लोगे।”
और अंजीर का वह पेड़ जिसे यीशु मसीह ने देखा पत्तों से ढका हुआ था लेकिन उस पर फल नही थे और यह उस व्यक्ति के समान था जिसके पास केवल शब्द हो लेकिन कर्म नही। हमें याद है कि यीशु मसीह ने उस पेड़ की निंदा की और वह सूख गया और समाप्त हो गया।
प्रभु यीशु मसीह दाख की बारी के माली है। हम सब लोग वृक्ष है। शीघ्र ही प्रभु यीशु मसीह यह देखने के लिए आ रहे है कि हममें किस प्रकार के फल लगे है। वे क्या पायेंगे? केवल पत्तों से ढका होना ही पर्याप्त नही है बल्कि फलों का होना भी आवश्यक है। एक अच्छी कुश्ती के विषय में बातें करना ही पर्याप्त नही है। पौलुस कहता है कि मैं एक अच्छी कुश्ती लड़ चुका, जो कर्म को दिखाता है। हमेशा याद रखें कि कार्यो की आवाज शब्दों से बहुत ऊंची होती है। तो हमारे कार्य क्या बताते है?
‘काम बोलते है’ (Actions speak) is taken from ‘Minute Meditations’ by Robert J. Lloyd
पाप
(Sin)
परमेश्वर की आज्ञा का पालन न करना पाप है। हम सब इस बात में दोषी है। पत्रिका के इस अंक में हम पाप के विषय में परमेश्वर के वचन से देखेगें कि, परमेश्वर की दृष्टि में पाप क्या है, विभिन्न प्रकार के पाप क्या है, और पाप के परिणाम क्या है।
मुख्य पद – गिनती 15:22-36
गिनती की पुस्तक के इन पदों में यदि हम देखें तो पाप करने का दण्ड बहुत ही गंभीर था: ‘‘वह मनुष्य निश्चय मार डाला जायें’’ जी हाँ यहां यही वह दण्ड है जो उस मनुष्य को मिला जो विश्राम दिन में लकड़िया इकट्ठी कर रहा था। शुरूआत में यह दण्ड बहुत ही अधिक लगता है- क्या गलत दिन में लकड़िया इकट्टठी करना इतना बड़ा पाप है कि इसके लिए मृत्यु की सजा मिलें?
- क्या यह मनुष्य जानबूझकर परमेश्वर की आज्ञा का उल्लघंन कर रहा था, या वह यह भूल गया था कि यह विश्राम का दिन था?
- इस व्यक्ति के द्धारा किया गया पाप उन पापों से किस प्रकार भिन्न था, जिनकी बलिदान के द्धारा क्षमा मिल सकती थी?
- क्या आप सोचते है कि परमेश्वर हमेशा न्यायी और भला है?
- पद 31 में बताया गया है कि जो व्यक्ति परमेश्वर के वचन को तुच्छ जानता है और उसकी आज्ञाओं को टालता है तो ‘‘उसका अधर्म उसी के सिर पड़ेगा’’ क्या इसका अर्थ यह है कि पाप की क्षमा नही है?
- पापों को क्षमा करने के लिए परमेश्वर जानवरों की बलि क्यों चाहता है? आज परमेश्वर को इस बलिदान की आवश्यकता क्यों नही है?
- जानबूझकर और अनजाने में किये गये पाप में क्या अन्तर है?
- क्या अनजाने में किये गये किसी कार्य के लिए हमें उत्तरदायी होना चाहिए?
- जानबूझकर किये गये पाप की क्षमा के लिए क्या कोई बलिदान सम्भव है?
- यदि कोई मसीही विश्वासी जानबूझकर पाप करता है तो उसके लिए क्या बाईबल में कोई प्रावधान है? इब्रानियों 10:26-31 पर विचार किजिए।
पाप के तीन स्रोत
1 यूहन्ना 2:16, इस पद में पाप के तीन स्रोतों का वर्णन है: शरीर की अभिलाषा, आंखो की अभिलाषा और जीविका का घमण्ड।
- क्या सभी पापों के यही तीन स्रोत है?
- उत्पत्ति 3:6 को देखें। क्या हव्वा द्धारा किया गया पाप इन्ही तीन स्रोतो से आया?
- लूका 4:1-13 को देखें। क्या यीशु मसीह की परीक्षा इन्हीं तीन स्रोतो के अन्तर्गत थी?
परमेश्वर आज्ञाकारिता से प्रेम करता है और पाप से घृणा करता है
परमेश्वर की सम्पूर्ण योजना एक साधारण से शब्द ‘आज्ञाकारिता’ पर केन्द्रित है। कुछ समय के लिए निम्न बातों पर विचार किजिये:
- आदम और हव्वा के आज्ञा न मानने के कारण पाप और मृत्यु आयी। (रोमियों 5:12)
- मूसा की व्यवस्था की आज्ञाकारिता से पापों को ढका गया और परिणाम स्वरूप परमेश्वर की आशीष मिली। (गिनती 15:28)
- मसीह की सम्पूर्ण् आज्ञाकारिता से कृपा और अन्नत जीवन मिला। (रोमियों 5:19)
- परमेश्वर के प्रति हमारी आज्ञाकारिता, हमारे पापों की क्षमा और अनन्त जीवन के लिए आवश्यक है। (रोमियों 6:16)
अत: उपरोक्त बातों से हमें पता चलता है कि आज्ञाकारिता कितनी महत्वपूर्ण है: परमेश्वर आज्ञाकारिता से प्रेम करता है और पाप से घृणा करता है। परमेश्वर की आज्ञा का उल्लघंन करना ही पाप है। पापी होने का अर्थ है अनआज्ञाकारी होना (1 यूहन्ना 3:4) यह स्पष्ट है कि परमेश्वर क्यों पाप से घृणा करता है: जब हम परमेश्वर की आज्ञा का उल्लघंन करते है तो हम उसकी, सच्चाई, प्रेम, धैर्य, न्याय, विश्वास, दया आदि बातों को त्याग देते है (निर्गमन 34:6-7) अत: पाप करने के द्धारा हम स्वंय परमेश्वर को त्याग देते है। पौलुस कहता है,
“शरीर पर मन लगाना तो मृत्यु है, परन्तु आत्मा पर मन लगाना जीवन और शान्ति है; क्योंकि शरीर पर मन लगाना तो परमेश्वर से बैर रखना है, क्योंकि न तो परमेश्वर की व्यवस्था के अधीन है और न हो सकता है; और जो शारीरिक दशा में है, वे परमेश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकते।” (रोमियों 8:6-8)
वास्तव में परमेश्वर पाप से इतनी अधिक घृणा करता है कि उसने कहा कि पाप मृत्यु की ओर ले जायेगा; वह मृत्यु को पाप की मजदूरी कहता है (रोमियों 6:23)।
हमें आज्ञाकारिता से प्रेम और पाप से घृणा करना सीखना चाहिए
परमेश्वर चाहता है कि हम उसके जैसे बने इसलिए हमें पापी नही बल्कि आज्ञाकारी होना है; इसलिए जैसे परमेश्वर पाप से घृणा करता है तो हमें भी पाप से घृणा करनी चाहिए। ऐसा करने का सबसे अच्छा तरीका बाईबल पढना है। उदाहरण के लिए यदि हम देखें तो मूसा द्धाराएक विस्तृत व्यवस्था दी गयी ताकि इस्राएली लोग यह जान सके कि परमेश्वर पवित्र है – इससे उन्होनें सीखा की मनुष्य और परमेश्वर के बीच कितनी बड़ी खाई थी और यह कि परमेश्वर सम्पूर्ण आज्ञाकारिता चाहता है। इन दो पदों पर विचार किजिए:
“क्योंकि व्यवस्था के कामों से कोई प्राणी उसके सामने धर्मी नही ठहरेगा, इसलिए कि व्यवस्था के द्धारा पाप की पहिचान होती है” (रोमियों 3:20)
“क्योंकि जो कोई सारी व्यवस्था का पालन करता है परन्तु एक ही बात में चूक जाए तो वह सब बातों में दोषी ठहर चुका है” (याकूब 2:10)
प्रभु यीशु मसीह के अलावा कोई भी सम्पूर्ण आज्ञाकारी होकर उस स्थान तक नही पहुंचा। (इब्रानियों 4:15) यदि हम विश्वासी है तो, कभी कभी परीक्षाओं में गिर जाने पर भी, परमेश्वर हमें धार्मिक ही मानता है। इस्राएली व्यवस्था का पूर्णतया पालन करने में असफल रहे और प्रभु यीशु मसीह पूर्णतया आज्ञाकारी रहे, इन दो उदाहरणों से हम पाप से घृणा करना सीख सकते है।
अपने जीवन के अनुभवों, परीक्षाओं, सफलताओं और असफलताओं, से भी हम पाप से घृणा करना सीख सकते है। अय्यूब ने अपनी परीक्षाओं के द्धारा नम्रता सीखी, और उसने इस बात को सीखा कि वह पापी है और क्षमा के लिए सम्पूर्ण रूप से परमेश्वर पर विश्वास करना आवश्यक है। अपने जीवन में आत्म–मथंन और चिन्तन से अय्यूब ने परमेश्वर के सम्मुख अपनी अपर्याप्तता को सीखा। यद्यपि वह आज्ञाकारी और विश्वासी था, तो भी वह परमेश्वर के सम्मुख सिद्ध नही था। कभी कभी पाप से घृणा करना कठिन होता है क्योंकि हम उसे बुरा महसूस नही करते। आज्ञाकारी अय्यूब के समान यदि हमने कोई बडा पाप नही किया है तो हम मुश्किल में पड़ सकते है क्योंकि हम यह सोचने लगते है कि हम तो छोटे पापी है और हमें उतने बड़े पश्चाताप की आवश्यकता नही है।
परमेश्वर ने किस प्रकार अय्यूब को परखा, उसका परिवार समाप्त हो गया, उसके पशु मर गये और यहां तक कि उसका स्वास्थ्य भी जाता रहा। अपने सम्पूर्ण मन से परमेश्वर से प्रेम और पाप से घृणा सीखने से पहले उसको अपना सबकुछ खोना पड़ा। जिस प्रकार अय्यूब ने पाप से घृणा करना सीखा उसका हमारे जीवन पर बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ता है – ऐसी स्थिति में, चाहे हम छोटे पापी ही क्यों न हो, क्षमा की अति आवश्यकता हो जाती है।
“तुम ने पाप से लड़ते हुए उससे ऐसी मुठभेड़ नहीं की कि तुम्हारा लहू बहा हो;...हे मेरे पुत्र, प्रभु की ताड़ना को हल्की बात न जान, और जब वह तुझे घुड़के तो साहस न छोड़। क्योंकि प्रभु जिससे प्रेम करता है, उसकी ताड़ना भी करता है, और जिसे पुत्र बना लेता है, उसको कोड़े भी लगाता है” (इब्रानियों 12:4-6)
कुछ सम्बन्धित पद
पाप का परिचय | उत्पत्ति 3:1-7, रोमियों 5:12,19 |
पाप के विषय में परमेश्वर का दृष्टिकोण | रोमियों 8:6-8, 1 यूहनना 3:4; 5:17 |
पाप के स्रोत | मत्ति 15:18-19; याकूब 1:14,4:17; 1 यूहन्ना 2:16 |
पाप का परिणाम | यूहन्ना 8;34; रोमियों 6:23 |
पाप करने से बचना | उत्पित्ति 4:7; रोमियों 6:1-2; 1 कुरिन्थियों 15:34; इब्रानियों 10:26,12:4; 1 यूहन्ना 3:6 |
जानबूझकर किया गया पाप | इब्रानियों 6:4; 10:26 |
अनजाने में किया गया पाप | लैव्यव्यवस्था 4:27-28; गिनती 15:22-29; यहेजकेल 45:20 |
पापों की सूचि | 1 कुरिन्थियों 6:9-10; गलतियो 5:19-21; इफिसियों 5:5; कुलुस्सियों 3:5; प्रकाशितवाक्य 22:15 |
पाप क्या है?
कभी-कभी यह स्पष्ट नही होता कि पाप क्या है। कुछ पाप स्पष्ट होते है जबकि कुछ नही, कभी-कभी जो किसी के लिए पाप होता है वह दूसरे व्यक्ति के लिए पाप नही होता। उदाहरण के लिए यदि हम देखें तो असंयम एक पाप है (मत्ति 23:25), तो भी एक विश्वासी असंयम के विषय में जैसा सोचता है हो सकता है दूसरा विश्वासी ऐसा ना सोचें। ऐसी स्थिति क्यों है?
क्योंकि बाईबल में सभी पापों की सूचि नही है तो ऐसे में हमें गलत और सही का निर्णय लेने के लिए बाईबल के सिद्धान्तों का प्रयोग करना चाहिए। यदि ध्यानपूर्वक पढने और समझने के बाद, विचारविमर्श और प्रार्थना के बाद भी यदि हम गलती कर देते है तो परमेश्वर इतना कृपालु है कि वह हमारी इस गलती को क्षमा कर सकता है।
पाप की निम्न श्रेणीयों पर विचार किजिए:
निडर होकर किया गया पाप:
“जो प्राणी ढिठाई से कुछ करे, वह यहोवा का अनादर करनेवाला ठहरेगा, और वह प्राणी अपने लोगों में से नाश किया जाए।” (गिनती 15:30)
जानबूझकर किया गया पाप:
“शरीर के काम तो प्रगट हैं, अर्थात व्यभिचार, गन्दे काम, लुचपन, मूर्तिपूजा, टोना, बेर, झगड़ा, ईर्ष्या, क्रोध, विरोध, फूट, विधर्म, डाह, मतवालपन, लीलाक्रीड़ा, और इन के ऐसे और और काम है।” (गलतियों 5:19-21)
अनजाने में किया गया पाप:
“यदि साधारण लोगों में से कोई अज्ञानता से पाप करे, अर्थता कोई ऐसा काम जिसे यहोवा ने मना किया हो करके दोषी हो...” (लैव्यव्यवस्था 4:27-28)
भलाई करने में चूककर किया गया पाप:
“इसलिए जो कोई भलाई करना जानता है और नहीं करता, उसके लिये यह पाप है।” (याकूब 4:17)
पाप चाहे किसी भी प्रकार का हो तो भी पापी परमेश्वर की आज्ञा को तोड़ने का दोषी होता है। क्योंकि परमेश्वर दयालु है तो हम उससे अपने पापों के लिए क्षमा मांग सकते है और वह क्षमा करता भी है। परमेश्वर तभी हमें क्षमा करता है यदि हम पाप करना छोड़ देते है और उसकी आज्ञाओं के अनुसार अपना जीवन बिताते है। पौलुस इस बात को बहुत ही अच्छी तरह से बताता है:
“इसलिए अपने उन अंगो को मार डालो, जो पृथ्वी पर है, अर्थात व्यभिचार, अशुद्धता, दुष्कामना, बुरी लालसा और लोभ को जो मूर्ति पूजा के बराबर है। इन ही के कारण परमेश्वर का प्रकोप आज्ञा न माननेवालों पर पड़ता है। और तुम भी, जब इन बुराइयों में जीवन बिताते थे, तो इन्हीं के अनुसार चलते थे। पर अब तुम भी इन सब को अर्थात क्रोध, रोष, बैरभाव, निन्दा और मुंह से गालियां बकना ये सब बातें छोड़ दो। एक दूसरे से झूठ मत बोलो क्योंकि तुम ने पुराने मनुष्यत्व को उसके कामों समेत उतार डाला है और नए मनुष्यत्व को पहिन लिया है जो अपने सृजनहार के स्वरूप के अनुसार ज्ञान प्राप्त करने के लिये नया बनता जाता है। उस में न तो यूनानी रहा, न यहूदी, न खतना, न खतनारहित, न जंगली, न स्कूती, न दास और न स्वतंत्र: केवल मसीह सब कुछ और सब में है। इसलिए परमेश्वर के चुने हुओं की नाई जो पवित्र और प्रिय है, बड़ी करूणा, और भलाई, और दीनता, और नम्रता और सहनशीलता धारण करो। और यदि किसी को किसी पर दोष देने का कोई कारण हो, तो एक दूसरे की सह लो, और एक दूसरे के अपराध क्षमा करो: जैसे प्रभु ने तुम्हारे अपराध क्षमा किए, वैसे ही तुम भी करो। और इन सब के ऊपर प्रेम को जो सिद्धता का कटिबन्ध है बान्ध लो।” (कुलुस्सियों 3:5-14)
उदाहरण
निम्न उदाहरणों पर विचार कीजिये। निम्न उदाहरणों में आप किस सिद्धान्त के द्धारा यह निर्धारित करेंगे कि क्या पाप है?
- 1 पतरस 3:3 – सिंगार दिखावटी न हो। तो क्या इसका यह अर्थ है कि स्त्री को सिंगार नही करना चाहिए और अच्छे वस्त्र नही पहनने चाहिये?
- एक अफ्रीकी व्यक्ति विश्वास में आ जाता है और उसकी दो पत्नियां है तो क्या उसको अपनी एक पत्नि को छोड देना चाहिए क्योंकि बाईबल बताती है कि अध्यक्ष एक ही पत्नी का पति हो? (1 तीमुथियुस 3:2, मत्ति 19:5-6)
- एक व्यक्ति इंजिनियर है और वह एक इंजिन्यिरिंग संघ का सदस्य है। उसकी बहन चाहती है कि वह संघ की सदस्यता छोड़ दें क्योंकि एक विश्वासी को किसी संघ का सदस्य नही होना चाहिए।
- एक अफ्रीकी व्यक्ति विश्वास में आ जाता है और उसकी दो पत्नियां है तो क्या उसको अपनी एक पत्नि को छोड देना चाहिए क्योंकि बाईबल बताती है कि अध्यक्ष एक ही पत्नी का पति हो? (1 तीमुथियुस 3:2, मत्ति 19:5-6)
- एक महिला बाईबल पाठयक्रम चलाना चाहती है लेकिन उसके पति का मानना है कि उसको ऐसा नही करना चाहिए क्योंकि बाईबल बताती है कि स्त्री को शिक्षक नही होना चाहिए (1 तीमुथियुस 2:12) महिला अपने पति से तर्क करती है और कहती है कि फिलिप्पुस के चार भविष्यवाणी करने वाली पुत्रियां थी (प्रेरितों के काम 21:8-9) और प्रिस्किल्ला ने सुसमाचार सिखाया (प्रेरितों के काम 18:26)
सारांश
- परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन करना ही पाप है।
- प्रभु यीशु मसीह को छोड़ सबने पाप किया है।
- हमें परमेश्वर का आज्ञाकारी होना चाहिए और पाप से घृणा करनी चाहिए।
- पाप मृत्यु की ओर ले जाता है। लेकिन यदि हम विश्वासी है तो परमेश्वर हमारे पापों को क्षमा करना चाहता है।
विचारणीय पद
- विभिन्न प्रकार के पापों पर विचार कीजिए। इनमें से किस पाप से बाहर आना आपके लिए मुश्किल है और क्यों?
- निम्नलिखित बातों और उनमें निहित सिद्धान्तों पर विचार कीजिए। क्या कुछ ऐसी परिस्थितियां है जिनके अन्तर्गत ये बातें पाप है? क्या कुछ ऐसी परिस्थियां है जिनके अन्तर्गत ये बातें पाप नही है?
- मूर्ति को बलिदान किया हुआ मांस खाना (1 कुरिन्थियों 8:9-13)
- किसी से मिली जानकारी को रोकना।
- विश्रामदिन को न मानना। (कुलुस्सियों 2:16)
- अपने टेक्स को कम करना।
- घर या जीवन का इंश्योरेंस करना।
- पुरूष का खतना न किया जाना। (प्रेरितों 16:1-3; गलतियों 2:3)
- स्त्री का परमेश्वर की संगति में सिर न ढापना। (1 कुरिन्थियों 11:2-16)
- नये चाल चलन के कपड़े पहनना। (1 तीमुथियुस 2:9; 1 पतरस 3:3)
- रोमियों 7:14-25 को पढ़े। जैसा पौलुस महसूस करता है क्या वह आप के साथ भी सम्बिन्धित हो सकता है?
- क्या आप ऐसा सोचते है कि कुछ पाप अन्य पापों से बुरे होते है? ऐसे कुछ उदाहरण और उसके कारण दीजिये।
- अ) क्या आप ऐसा सोचते है कि बपतिस्में से पहले किये गये पाप क्षमा हो सकते है?
ब) आप पाप के लिए कब जिम्मेदार होते है?
अन्य खोज
- क्या वास्तव में आप पाप से घृणा करते है? जब आप से कोई पाप हो जाता है तो आप कैसा महसूस करते है? इस विषय में अपने विचार और भावनायें लिखिए।
- क्या आप सोचते है कि यहूदा का प्रभु यीशु मसीह को धोखा देना क्षमा योग्य है? लूका 12:10 और मत्ति 26:24 पर विचार कीजिए। क्या यहूदा का पाप, पतरस के यीशु मसीह के इन्कार करने के समान है?
- विचार कीजिए कि क्यों परमेश्वर कुछ बातों को पाप मानता है। निम्न बातों को परमेश्वर पाप मानता है आपकी समझ से ऐसा क्यों है?
- व्यर्थ की बातें करना
- लालच
- घमण्ड
- व्यभिचार
- शिकायत
- असंयम
‘पाप’ (Sin) is from ‘The Way of Life’, edited by Rob J. Hyndman
ईश्वर हमारा दाता (God the Provider)
“विधान” एक पुराना शब्द है जो धार्मिकता के विषय में प्रयोग किया जाता था। इसका अर्थ है कि “जिसका प्रबन्ध किया गया”, लेकिन आजकल इसका प्रयोग बहुत ही सीमित है और बहुत ही कम लोग है जो इस विषय मे सोचते है कि ईश्वर ने हमें क्या दिया है। इसलिए सर्वशक्तिमान ईश्वर, जो हमारा पिता है, के बच्चे होने के नाते हमारे लिए यह अति आवश्यक है कि हम इस बात को स्वीकार करें कि हमें सब कुछ देने वाला वही ईश्वर है। लेकिन क्या हम ऐसा करते है? क्या हम उसको सबकुछ देने वाला समझते है और क्या हम मानते है कि वही है जो मसीह में हमारे परिवार की जरूरतों को पूरा करने वाला है?
ईश्वर को इस तरह से पहचानने की अपनी यात्रा के मार्ग पर हमारा पहला कदम यह होगा कि हम इस बात को जाने और स्वीकार करें कि “ईश्वर है”
“परमेश्वर के पास आने वाले को विश्वास करना चाहिये कि वह है” (इब्रानियों 11:6)
एक ऐसा ईश्वर “जो है ही नही” हमें कुछ नही दे सकता है। केवल यहोवा ही अनन्त है, जो था, जो है, और जो आने वाला है। चाहे भूतकाल, वर्तमान या भविष्य, वही एकमात्र है जो कहता है कि “मैं हूं” – उसे छोड़ कोई ईश्वर है ही नही। बाल देवता अपने पूजने वालों को उत्तर नही दे सका क्योंकि बाल देवता का अस्तित्व था ही नही।
“उनके मुँह तो रहता है, परन्तु वे बोल नहीं सकतीं, उनके आँखें तो रहती हैं, परन्तु वे देख नहीं सकतीं, उनके कान तो रहते हैं, परन्त वे सुन नही सकतीं, न उनके कुछ भी साँस चलती है” (भजन संहिता 135:16-17)
हमारा ईश्वर ही एकमात्र ईश्वर है जो “है” – जो देख सकता है और सुन सकता है।
“जिसने कान दिया, क्या वह आप नहीं सुनता? जिसने आँख रची, क्या वह आप नहीं देखता?” (भजन संहिता 94:9)
और इसलिए हम दाऊद के इस गीत में सहभागी होते है:
“यहोवा की आँखें धर्मियों पर लगी रहती है, और उसके कान भी उनकी दोहाई की ओर लगे रहते हैं”। (भजन संहिता 34:15)
अस्तित्व होने के विषय में एक आश्चर्यजनक बात यह है कि इससे हमें पता है कि इसके विषय में और भी बहुत सी जानने वाली बातें है। “ईश्वर है” यह ईश्वर की सभी विशेषताओं के लिए उपसर्ग है। यूहन्ना बताता है कि, “ईश्वर ज्योति है” (1 यूहन्ना 1:5)।
अब हमें अपने आप को उत्पत्ति 1:11 के उत्पत्ति के सिद्धान्त को और आत्मिक क्षेत्र में “आत्मिक उत्पत्ति” के रूप में इसके कार्य को स्मरण दिलाना चाहिये। परमेश्वर ने जो कुछ भी बनाया उसमें उसने एक अनिवार्य सिद्धान्त दिया कि प्रत्येक “अपने ही प्रकार का बीज” रखता है। इसलिए हम जानते है कि एक नींबू के वृक्ष में आम नही लगते, किसी कांटे की झाडी में सेव नही लगते या किसी मानवीय मादा से छिपकली के बच्चे पैदा नही हो सकते है। इससे हमें कितनी सुरक्षा मिलती है। जब किसी को सन्तान पैदा होती है तो हम केवल यह पूछते है कि, “लड़का या लड़की?” यह नही कि, “क्या यह बछड़ा है या पिल्ला है या कोई और जानवर है”! उत्पत्ति का यह नियम एक प्रेमी पिता के द्वारा, उत्पत्ति 1:11 में, बनाया गया और उस समय से यह ऐसे ही है। जो बात पूरी सृष्टि पर लागू होती है वही परमेश्वर पर भी होती है। यदि परमेश्वर ज्योति है तो जो परमेश्वर का है वह भी ज्योति है। जो परमेश्वर ने किया उसका परिणाम ज्योति है यद्यपि मानवीय परिपेक्ष्य में जो कुछ उसने किया उस पर छाया का धब्बा है। जो इस संसार की ओर से है वह अन्धकार है क्योंकि
“जो कुछ संसार में है, अर्थात शरीर की अभिलाषा और आँखों की अभिलाषा और जीविका का घमण्ड, वह पिता की ओर से नहीं परन्तु संसार ही की ओर से है” (1 यूहन्ना 2:16)
उत्पत्ति 1:3-4 में हम देखते है कि परमेश्वर ने जो उजियाला बनाया वह “अच्छा” था। इसलिए पवित्र शास्त्र (बाईबल) में “ईश्वर” और “अच्छाई” परस्पर सम्बन्धित है, जब मूसा ने ईश्वर से प्रार्थना की “मुझे अपना तेज दिखा दे” (निर्गमन 33:18) – यहोवा ने उत्तर दिया –
“मैं तेरे सम्मुख होकर चलते हुए तुझे अपनी सारी भलाई दिखाऊँगा” (पद 19)
ईश्वर की महिमा उसकी भलाई है। स्वभाव से वह सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञाता, सर्वव्यापी है। लेकिन महिमा यह है कि उस सम्पूर्ण शक्ति, सम्पूर्ण ज्ञान, और सम्पूर्ण सर्वव्यापी उपस्थिती के साथ वह निश्चल है।
“दयालु और अनुग्रहकारी, कोप करने में धीरजवन्त, और अति करूणामय और सत्य” (निर्गमन 34:6)
मनुष्य इस जीवन में परमेश्वर की आलौकिक शक्तियों को प्रदर्शित नही कर सकता है। लेकिन हम उसकी महिमा से रहित है (रोमियों 3:23) क्योंकि हम उतने दयालु, अनुग्रहकारी, धीरजवन्त, करूणामय और सच्चे , उतने क्षमा करने वाले या उतने न्यायी नही हो सकते जितना ईश्वर है।
यह सब परमेश्वर की ओर से है इसलिए ज्योति है और अच्छा है। यह एक सिद्धान्त है जिस पर हमें, विश्वासी बच्चे होने के नाते, विश्वास करना चाहिये। उसका वचन उसकी ओर से है इसलिए
“तेरा वचन मेरे पाँव के लिए दीपक, और मेरे मार्ग के लिए उजियाला है” (भजन संहिता 119:105)
मसीह र्इश्वर की ओर से है इसलिए मसीह ने कहा कि, “मैं जगत की ज्योति हूँ” (यूहन्ना 9:5) ईश्वर जो देने वाला है हर तरह से ज्योति देने का विधान करता है- फिर भी उन मार्गो पर अन्धेरा प्रतीत होता है।
यूहन्ना भी बताता है कि “ईश्वर प्रेम है” (1यूहन्ना 4:8,16), और यह भी कि जो ईश्वर की ओर से है वह प्रेम है (पद 7)
विधाता का तरीका हमेशा प्रेम का मार्ग होता है। और वही प्रेम का मार्ग जो गुलगुता जाते हुए यीशु के साथ था और दुख भरा था- काटों भरा औ दर्द भरा, और चरम पर था।
उसके बच्चे होने के नाते हमें इस बात को जानना और स्वीकार करना चाहिए, कि
- “परमेश्वर ज्योति है और उसमें कुछ भी अन्धकार नहीं” (1यूहन्ना 1:5),
- “तू (ईश्वर) भला है, और भला करता भी है” (भजन 119:68), और
- “प्रेम परमेश्वर से है” और “परमेश्वर प्रेम है” (1यूहन्ना 4:7-8)
और यह उस ईश्वर और उसकी व्यवस्था की प्रसन्नता के लिए एक आवश्यक आधार है।
लेकिन आईये हम उन आलौकिक विशेषताओं को पुन: देखें जो ईश्वर की मौलिक परिभाषा को बनाती है- कि वह सर्वज्ञाता, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। हमारे लिये यह अति आवश्यक है कि हम ईश्वर के इन शैक्षिक वर्णनों की व्यक्तिगत अनुभूति करें। ईश्वर सर्वज्ञाता (सब कुछ जानने वाला ) है- और इसलिए अय्यूब का यह वर्णन, अय्यूब के लिए और हमारे लिये, सही है कि, “वह जानता है कि मैं कैसी चाल चला हूँ” (अय्यूब 23:10) ईश्वर के रास्ते को अय्यूब नही जानता था (23:8) और न ही अय्यूब उस रास्ते को जानता था जो ईश्वर ने उसके लिये चुना था (23:9) लेकिन अय्यूब यह जान गया था कि, “ईश्वर जानता है कि मैं कैसी चाल चला हूँ” (23:10)
हम निश्चित रूप से कह सकते है कि परमेश्वर जो कुछ कर रहा है वह जानता है (अय्यूब 23:13-14) – “जो कुछ उसने मेरे लिये ठान लिया है, उसी को वह पूरा करता है” जिस तरह से ईश्वर कार्य करता है हम ऐसे नही कर सकतें है और न ही हम उन्हें समझ सकते है- अय्यूब भी नही समझ सका। यहां तक कि सभोपदेशक का बुद्धिमान लेखक भी ईश्वर के कार्यो को नही समझ सका:
“तब मैंने परमेश्वर का सारा काम देखा जो सूर्य के नीचे किया जाता है, उसकी थाह मनुष्य नहीं पा सकता..... और यद्यपि बुद्धिमान कहे भी कि मैं उसे समझूँगा, तौभी वह उसे न पा सकेगा” (सभोपदेशक 8:17)
हम ईश्वर के कार्यो की थाह नही पा सकते है लेकिन वह हमारे कार्यो की थाह पा सकता है
“हे यहोवा तू ने मुझे जाँचकर जान लिया है...और मेरे पूरे चालचलन का भेद जानता है” (भजन 139:1-3)
हम कितने धन्य है कि पूरा ज्ञान उस ईश्वर के पास है और वह सामर्थ उसके पास है जिसके द्वारा वह हमें उसके राज्य में ले जाने वाले मार्ग पर हमारा नेतृत्व करता है। यद्यपि हम उस मार्ग को जानते है जो हमें उसके विधान की ओर ले जाता है, लेकिन तो भी अपनी मानवीय सामर्थ के द्वारा हम उस मार्ग पर नही चल सकते है – लेकिन वह (ईश्वर) जानता है और वह हमें उस पर चलने योग्य बना सकता है।
“क्योंकि परमेश्वर ही है जिसने अपनी सुइच्छा निमित्त तुम्हारे मन में इच्छा और काम, दोनों बातों के करने का प्रभाव डाला है” (फिलिप्पियों 2:13)
वास्तव में वह हमारे मार्गो को जानता है – हर एक किलोमीटर, हर एक मिलीमीटर – वह जानता है कि मैं कैसी चाल चला हूँ; और जब वह मुझे ता लेगा तब मैं सोने के समान निकलूँगा (अय्यूब 23:10) ईश्वर सर्वज्ञाता है – ईश्वर जानता है।
ईश्वर सर्वशक्तिमान है, यह काल्पनिक सिद्धान्त नही है, बल्कि उसके अपने लोगों के दैनिक जीवन में व्यवहारिक वास्तविकता है – दो बूढ़ी स्त्रियों से सन्तान होने की घटना (उत्पत्ति 18:12-14 और लूका 1:36-37), या एक कुँवारी के गर्भवती होने की घटना (लूका 1:34-35) “क्या यहोवा के लिए कोई काम कठिन है?” जब यिर्मयाह ने एक खेत खरीदा जो कि शत्रुओं के हाथ रौंदे जाने पर था – यह संसार इस घटना पर हंसा होगा और बेचने वाले ने खुशी के साथ अपना पैसा गिना होगा – लेकिन यिर्मयाह की यह खरीदारी, जो कि व्यवहारिक प्रतीत नही होती, ईश्वर की सामर्थ की एक गवाही थी कि वह अपने वचनों को पूरा करता है। इसलिए यिर्मयाह ने प्रार्थना की:
“हे प्रभु यहोवा, तू ने बड़ी सामर्थ्य और बढ़ाई हुई भुजा से आकाश और पृथ्वी को बनाया है। तेरे लिये कोई काम कठिन नहीं है” (यिर्मयाह 32:17)
वह सर्वशक्तिमान है जो उसके राज्य की ओर जाने वाले मार्ग में आने वाली हर एक बाधा को हटाने में समर्थ है। हमारी वह सांसारिक धन-सम्पत्ति क्या है जो परमेश्वर के राज्य की ओर जाने में हमारे लिये बाधा है – धन-सम्पत्ति, प्रतिष्ठा या फिर इस ईश्वर रहित संसार की दृष्टि में हमारा सम्मान? मनुष्य के लिए उद्धार प्राप्त करने में बहुत सी बाधाऐं है:
“मनुष्यों से तो यह नहीं हो सकता, परन्तु परमेश्वर से सब कुछ हो सकता है” (मत्ती 19:26)
सब कुछ सम्भव है – यहां तक कि हमारे उन पापों की क्षमा भी सम्भव है जिनके विषय में हम यह महसूस करते है कि हम उन पापों के लिए अपने आप को कभी क्षमा नही कर सकते है। “क्योंकि परमेश्वर हमारे मन से बड़ा है, और सब कुछ जानता है” (1यूहन्ना 3:20)। केवल ईश्वर ही है जो मनुष्यों के हद्वयों को जान सकता है- फिर चाहे उसमें “असाध्य रोग” क्यों न हों (यिर्मयाह 17:9-10) या वह सच्चाई से ईश्वर की खोज में हों (प्रेरितों के काम 15:8) ईश्वर सब कुछ जानता है और सब कुछ कर सकता है।
ईश्वर सर्वव्यापी है – हर समय हर जगह उपस्थित रहने वाला है। भजन 139:7-13 पदों में दाऊद कितने सुन्दर ढ़ंग से इस बात को लिखता है। ईश्वर का दिया हुआ मार्ग हमें जहां कही भी ले जाता है हम इस बात के प्रति निश्चित हो सकते है कि, “वहाँ भी तू अपने हाथ से मेरी अगुवाई करेगा, और अपने दाहिने हाथ से मुझे पकड़े रहेगा” (पद 10) यदि वह हमें जंगल में भी ले जाये तो हम वहां हाजिरा के समान कह सकते कि “ईश्वर सर्वदर्शी है” (उत्पत्ति 16:13)
अत: हम देख सकते है कि ईश्वर की उस उपस्थिती और उसके हमारे लिये कार्य करने के उन तरीको की कितनी आवश्यकता है – हम केवल उसी में “जीवित रहते, और चलते-फिरते, और स्थिर रहते हैं” (प्रेरितों के काम 16:13)
ईश्वर को हमारी आवश्यकता नही है। “न किसी वस्तु की आवश्यकता के कारण मनुष्यों के हाथों की सेवा लेता है, क्योंकि वह स्वयं ही सब को जीवन और श्वांस और सब कुछ देता है” (पद 25) क्योंकि
“वन के सारे जीव जन्तु और हजारों पहाड़ों के जानवर मेरे ही है...क्योंकि जगत और जो कुछ उसमें है वह मेरा है” (भजन संहिता 50:10-12)
लेकिन हमें उसकी कितनी आवश्यकता है!
सब कुछ उसका है; सब कुछ उसकी आज्ञा से चलता है। क्या हम उसके सर्वज्ञान को समझते है कि “ईश्वर जानता है कि मैं कैसी चाल चला हूँ?” क्या उसकी सर्वसामर्थ प्रतिदिन हमें सिखाती है कि “उसके लिए कोई काम कठिन नही है?” क्या उसकी सर्वव्यापी सामर्थ हमें इस बात का निश्चय दिलाती है कि “ईश्वर सर्वदर्शी है?” ईश्वर हमारा दाता है, वह अपने प्रेम करने वालों के प्रतिदिन और रात की योजना को बनाता है – वह सर्वव्यापी है और सर्वज्ञाता है और अपनी आज्ञा में सर्वशक्तिमान है – कि हम प्रेम से कहते है कि,
“ईश्वर जानता है कि मैं कैसी चाल चला हूँ” (अय्यूब 23:10)
“जब मैं जागूँगा तब तेरे स्वरूप से सन्तुष्ट हूँगा।” (भजन संहिता 17:15)
‘ईश्वर हमारा दाता’ (God the Provider) is from ‘Caution! God at work’, by Tim Galbraith
"दीपक" पत्रिका और अन्य पुस्तिकाओं हेतू पता: | पत्राचार पाठयक्रम हेतू पता: |
दि क्रिस्टडेलफियन | दि क्रिस्टडेलफियन |
पो. बा. न. – 10, मुजफफरनगर (यूपी) – 251002 | पो. बा. न. – 50, गाजियाबाद (यूपी) – 201001 |
ई-मेल – cdelph_mzn@yahoo.in | ई-मेल – christadelphiansdelhi@gmail.com |
केवल व्यक्तिगत वितरण हेतू