तेरा वचन मेरे पांव के लिये दीपक, और मेरे मार्ग के लिये उजियाला है। भजन संहिता 119:105
क्या आप मार्ग में बाधा है?
एक प्रसिद्ध दार्शनिक, विल रॉगर, ने एक बार कहा था कि, "यदि आप सही रास्ते पर है तो भी दूसरे लोग आपसे आगे निकल जायेंगे यदि आप उस रास्ते पर बैठे है" एक दूसरी कहावत भी है कि, "यदि आप अपने मार्ग पर चल नही रहे है तो आप मार्ग रोक रहे है।"
सीधा और संकरा वह मार्ग जो हमें अनन्त जीवन की ओर ले जाता है, उस पर चलना एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात है, लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण यह है कि हम वास्तव में उस मार्ग पर चल रहे है और आगे बढ रहे है।
तेज गति की लेन में जब कोई धीरे चलने वाली कार मिल जाती है तो उससे कितनी परेशानी होती है इस बात का हम सभी को अनुभव है। बहुत बार इस तरह के ड्राईवर दुर्घटनाओं का कारण होते है क्योंकि वे मार्ग में बाधा उत्पन्न करते है, और यह भी सम्भव है कि तेज गति की लेन में धीरे चलकर यातायात में बाधा उत्पन्न करने के कारण उन पर जुर्माना लग जाये।
अब हम प्रभु यीशु मसीह का अनुसरण करने का प्रयास कर रहे है, जिन्होंने कहा कि, "मार्ग और सच्चाई और जीवन में ही हूं; बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुंच सकता।" दाऊद बताता है कि, "मैं तेरी आज्ञाओं के मार्ग में दौडूंगा।"
क्योंकि प्रभु यीशु मसीह ने कहा कि मार्ग मैं हूं और मेरा अनुसरण करो और दाऊद ने हमसे "उनकी आज्ञाओं के मार्ग में दौडने" के लिए कहा तो यह बात स्पष्ट है कि हमें चलना है। प्रभु यीशु मसीह ने हमसे कहा कि, "यदि तुम मुझ से प्रेम रखते हो, तो मेरी आज्ञाओं को मानोगे" और चलना और कार्य करना इन आज्ञाओं में सम्मिलित है।
निश्चय ही यह संसार चल रहा है और आगे बढ रहा है लेकिन एक गलत दिशा में चल रहा है। जैसे प्रभु यीशु मसीह ने कहा, "सकेत फाटक से प्रवेश करो, क्योंकि चौडा है वह फाटक और चाकल है वह मार्ग जो विनाश को पहुंचता है; और बहुतेरे हैं जो उस से प्रवेश करते है।" वास्तव में यह संसार विनाश के मार्ग पर तेज गति की लेन में है। लेकिन आशा है कि हम लोग बहुत पहले उस विनाश की ओर ले जाने वाले मार्ग को छोडकर उस सकरे मार्ग की ओर मुड़ गये है जो जीवन की ओर ले जाता है। प्रभु यीशु मसीह ने कहा कि थोडे है जो सकरा मार्ग पाते है, इसलिए हमें उस यातायात की चिन्ता नही है जिसमें यह संसार उलझा हुआ है।
हमें व्यर्थ ही मार्ग के बीच में बैठकर मार्ग में बाधा उत्पन्न नही करनी चाहिये। कितने ऐसे है जो प्रभु यीशु मसीह के पीछे चलने का प्रयास करने वालो के मार्ग में बाधा उत्पन्न करते है और मार्ग में बाधा पैदा कर उनके लिए कठिनाई पैदा करते है?
पौलुस उनके विषय में कहता है कि, "जो लोग उस शिक्षा के विपरीत जो तुम ने पाई है, फूट पड़ने, और ठोकर खाने के कारण होते है, उन्हें ताड़ लिया करो; और उन से दूर रहो।"
यिर्मयाह परमेश्वर को खोजने वालों के विषय में कहता है कि, "परमेश्वर यहोवा हम को बताये कि हम किस मार्ग से चलें, और कौन सा काम करें?" दुर्भाग्यवश उन्होंने सही बात कही लेकिन उसका अर्थ नही समझे और परमेश्वर द्वारा बताये गये कार्य नही किये और परमेश्वर के बताये मार्ग पर नही चले।
जब दाऊद बूढा हो गया तो कहता है कि, "मैने सच्चाई का मार्ग चुन लिया है" तो हम भी दाऊद के साथ यह बात कह सकते है और इससे एक असीम आनन्द मिलता है। लेकिन अभी हमारे लिये समय है कि हम "परमेश्वर की आज्ञाओं के मार्ग में दौडें" और उससे यह विनती करें कि, "हे यहोवा, मुझे अपनी विधियों का मार्ग दिखा दे; तब मैं उसे अन्त तक पकड़े रहूंगा।" यिर्मयाह परमेश्वर की ओर से हमसे कहता है कि, "सड़कों पर खडे होकर देखो, और पूछो कि प्राचीन काल का अच्छा मार्ग कौन सा है, उसी में चलो, और तुम अपने अपने मन में चैन पाओगे।" यदि हम पूछेंगे तो हम "अच्छा मार्ग" पायेंगे, यदि हम इसे खोजेंगे तो यह हमें मिल जायेंगा। परमेश्वर का वचन (बाईबिल) पढकर हम इस अच्छे मार्ग को खोज सकते है और इसे पा सकते है जैसा कि परमेश्वर ने यहोशू से कहा कि, "व्यवस्था की यह पुस्तक तेरे चित्त से कभी न उतरने पाए, इसी में दिन रात ध्यान दिए रहना, इसलिये कि जो कुछ उस में लिखा है उसके अनुसार करने की तू चौकसी करे; क्योंकि ऐसा ही करने से तेरे सब काम सुफल होंगे, और तू प्रभावशाली होगा।"
‘क्या आप मार्ग में बाधा है?’ (Are you blocking the way? is taken from ‘Minute Meditations’ by Robert J. Lloyd
घमण्ड और नम्रता
परमेश्वर बताता है कि घमण्ड मनुष्य के पतन का कारण है। जैसे वास्तव में आप है उससे अपने आप को बहुत अधिक अच्छा और महत्वपूर्ण समझना ही घमण्ड कहलाता है। जबकि नम्रता इसके विपरीत है और परमेश्वर नम्रता को पसन्द करता है।
मुख्य पद: दानिय्येल अध्याय 4
नबूकदनेस्सर बाबुल का एक महाबली राजा था जिसने एक विशाल सम्राज्य स्थापित किया। वह इतना घमण्डी था कि उसने ईटों पर अपने नाम की मुहर लगवायी और ऐसी बहुत सी ईटें बाबुल में मिली है। दूसरें लोगों को यह समझाने के लिए कि परमेश्वर घमण्डियों से कैसा व्यवहार करता है, नबूकदनेस्सर ने दानिय्येल का अध्याय 4 लिखा। परमेश्वर द्वारा नबूकदनेस्सर को पहली चेतावनी मिलने के बाद भी जब नबूकदनेस्सर नही समझा तो परमेश्वर ने उसको तब तक के लिए पागल कर दिया जब तक वह इस बात को न समझे कि सब पर परमेश्वर ही राज्य करता है। अन्त में नबूकदनेस्सर इस बात को जान गया कि परमेश्वर घमण्डी लोगों को नम्र और दीन करता है।
- परमेश्वर सामर्थी है इस बात पर विश्वास करने के लिए क्या नबूकदनेस्सर के पास कोई कारण था?
- धधकते हुए भट्टे की घटना के बाद, नबूकदनेस्सर ने बदलने का प्रयास किया, लेकिन फिर भी घमण्ड की विजय हुयी। हम अपने जीवन में घमण्ड पर किस प्रकार नियन्त्रण कर सकते है?
- नबूकदनेस्सर कितने समय तक पागल रहा?
- कुछ ऐसी बातों के विषय में सोचिये जिन पर हम घमण्ड करते है।
- कुछ ऐसे व्यवहारिक तरीकों को सोचिये जिनके द्वारा हम नम्रता का विकास कर सकते है।
साधारण परिभाषायें
अपने आप को, जितना हम है उससे अधिक या दूसरों से अधिक, अच्छा और महत्वपूर्ण सोचना ही घमण्ड है। अपने आप को, जितना हम है उससे कम महत्वपूर्ण या दूसरों से, कम अच्छा समझना ही नम्रता है।
परमेश्वर इस बात को अपने वचन के द्वारा स्पष्ट रूप से बताता है:
...जिसकी आंखे चढी हों और जिसका मन घमण्डी है, उसकी मैं न सहूंगा। (भजन संहिता 101:5)
और
मैं उसी की ओर दृष्टि करूंगा जो दीन और खेदित मन का हो, और मेरा वचन सुनकर थरथराता हो। (यशायाह 66:2)
सम्पूर्ण बाईबल घमण्ड से बचने और नम्र होने के विषय में बताती है। उदाहरण के लिए देखें तो पौलुस ने लिखा-
जैसे समझना चाहिए, उस से बढकर कोई भी अपने आप को न समझे पर जैसा परमेश्वर ने हर एक को परिमाण के अनुसार विश्वास दिया है,वैसा ही सुबुद्धि के साथ अपने को समझे … भाईचारे के प्रेम से एक दूसरे पर मया रखो; परस्पर आदर करने में एक दूसरे से बढ चलो … आपस में एक सा मन रखो; अभिमानी न हो; परन्तु दीनों के साथ संगति रखो; अपनी दृष्टि में बुद्धिमान न हो। (रोमियों 12:3,10,16)
घमण्ड दिखाना
घमण्ड की समस्या हम सबके साथ है। वास्तव में, हम कभी नही कहते कि हम हर एक काम में निपुण है, लेकिन वे बहुत से काम जिनमें हम निपुण है उनके विषय में नम्रता दिखाना हमारे लिए मुश्किल होता है।
क्या आपने कभी अपने किसी काम के विषय में घमण्ड महसूस किया है? क्या आपने कभी दूसरों की किसी महत्पूर्ण उपलब्धियों पर घमण्ड किया है? कुछ अच्छा करने पर होने वाली खुशी का यह एहसास कुछ ऐसा ही है जैसा घमण्ड पौलुस ने उन कलीसियाओं के विषय में किया जिन्होंने अपनी कलीसिया की समस्याओं का समाधान किया या जो विरोध होने के बावजूद भी अपने विश्वास में अडिग रहे। परमेश्वर के कार्य के विषय में घमण्ड करने को बाईबिल में भी सराहा गया है। (जैसे 2 कुरिन्थियों 8:24) ये घमण्ड के ऐसे उदाहरण है जो गलत नही है – जैसे कुछ अच्छा या प्रसन्नसनीय कार्य करने पर होने वाली खुशी का एहसास। सामान्यत: जब भी परमेश्वर घमण्ड के विषय में बात करता है तो उसका अर्थ मानवीय घमण्ड से होता है जो केवल अपने विषय में होता है और जो गलत हैं।
लक्षण
यहां कुछ ऐसे प्रश्न है जिनसे आप स्वंय को जांच सकते है कि आप में घमण्ड की समस्या हो सकती है या नही:
- क्या आप सोचते है कि आप दूसरे लोगों से सही है?
- क्या आपने कभी अपने को अच्छा दिखाने के लिए दूसरों को इंतजार कराया है?
- क्या यह आपके लिए महत्वपूर्ण है कि लोग आपके अच्छे काम के बारे में जाने?
- क्या आप इस बात की परवाह करते है जब लोग कहते है कि आप घमण्डी है?
- क्या आप अच्छे कार्य के लिए दूसरों की प्रसन्नसा करते है? क्या तब भी जो आपको करना चाहिये था वह कार्य उसने किया हो?
- कुछ अच्छा काम करने के बाद क्या आप महसूस करते है कि दूसरों को यह बताना चाहिये?
- क्या आप दूसरे के किये काम पर हसंते है यदि आप उस काम को उससे अच्छा करना जानते है?
- क्या आपने कभी किसी को छोटा माना है?
नम्रता का विकास
यहा कुछ दैनिक अभ्यास है जिनके द्वारा आप घमण्ड पर नियन्त्रण करना और नम्रता का विकास करना सीख सकते है-
- किसी के साथ अच्छा करें या सहायता करें तो उसके विषय में दूसरों को न बताये। (मत्ती 6:3-4)
- अपने जीवन की किसी ऐसी घटना को जिसका आपको खेद है या शर्मिदा है, उस बात को दूसरों के साथ बाटें जिससे वे सुधरने में अपकी सहायता करेंगे। (याकूब 5:16)
- ईश्वर के लिए किये गये अपने कार्य की तुलना यीशु या पौलुस से करें। (इब्रानियो 3:1-2, फिलिप्पियों 4:9)
- अपनी प्रसन्नसा न करें या ईश्वर की सेवा के लिए किये गये कार्य के विषय में बातें न करें। (नीतिवचन 27:2)
- अपनी नही बल्कि ईश्वर की महिमा के लिए कार्य करें। (1 कुरिन्थियों 10:31)
- डींग मारने का मन करें तो ईश्वर और उसकी सामर्थ के विषय में डींग मारे। (यिर्मयाह 9:23-24)
- प्रतिदिन दूसरों की प्रसन्नसा करें और उन्हें अपने से अच्छा समझे। (फिलिप्पियों 2:3)
कुछ सम्बन्धित पद
जब घमण्ड अच्छा होता है:
- परमेश्वर के विषय में घमण्ड: भजन संहिता 34:2, यिर्मयाह 9:24, 1 कुरिन्थियों 1:31
- दूसरों के विषय में घमण्ड: 2 कुरिन्थियों 1:14, 5:12, 7:4, 12:5
- स्वंय के विषय में घमण्ड: गलातियों 6:4, याकूब 1:9-10
जहां घमण्ड बुरा है:
- धन या दिखावे का घमण्ड: यहेजकेल 7:20, 28:5, 17; 2 कुरिन्थियों 5:12
- दूसरो से तुलना का घमण्ड: 1 कुरिन्थियों 4:6, गलातियों 6:4
- उपलब्धियों का घमण्ड: नीतिवचन 27:2, होशे 12:8
- डींग मारना : 1 कुरिन्थियों 5:6, 13:4, 1 यूहन्ना 2:16
ईश्वर घमण्डियों को नीचा करता है:
- 2 शमूएल 22:28; भजन संहिता 18:27; नीतिवचन 3:34; 16:18; 18:12; 29:23; यशायाह 13:11; 23:9; सपन्याह 3:11; मत्ती 23:12; लूका 14:7-11; याकूब 4:6; 1 पतरस 5:5
ईश्वर नम्रता से प्रेम करता है:
- भजन संहिता 18:27; नीतिवचन 3;34; 18:12; यशायाह 66:2; मीका 6:8; रोमियो 12:3,10,16; याकूब 4:6, 10, 1 पतरस 5:5
घमण्ड और नम्रता का पुरस्कार
नबूकदनेस्सर, अबसलोम और हमान के समान ईश्वर घमण्डियों को नीचे गिरायेगा। जितना अधिक हम अपने बारे में सोचते है उतना ही कम ईश्वर हमारे बारे में सोचता है। (देखें एस्तर और 2 शमूएल 14-15)
जो लोग नम्र होते है परमेश्वर उनको अपने राज्य में ऊँचा स्थान देने की और उनको महत्वपूर्ण बनाने की योजना बनाता है। अपने विषय में कम और परमेश्वर के विषय में अधिक सोचने का अर्थ यह है कि हम परमेश्वर के साथ सदा सर्वदा के लिए रहेगें।
सारांश
घमण्ड अधिकांशतया स्ंवय केन्द्रित होता है और इस दशा में यह गलत होता है। यदि हम घमण्ड करें और डींग मारे तो हम ईश्वर के विषय में घमण्ड करें और जो कार्य उसने हमारे लिये किये है उनके विषय में डींग मारे। यदि हम नम्र बनने की कोशिश करते है तो परमेश्वर कहता है कि वह हमें अपने राज्य में महत्वपूर्ण बनायेगा।
विचारणीय पद
- क्या कोई ऐसा कार्य है जो आप परमेश्वर के विषय में कर रहे है और जिसका करने का आपको बहुत घमण्ड है?
- बाईबिल में नम्रता के लिए कौन से चरित्र है जो अनुसरण करने के लिए दिये गये है? ऐसी कौन सी बातें है जिनके द्वारा उन्होंने बहुत ही नम्रता का प्रदर्शन किया?
- कब आपके लिए नम्र बना रहना मुश्किल होता है?
- नम्र होने और कम स्वाभिमानी होने में क्या अन्तर है?
अन्य खोज
- बाईबिल में ऐसे चार लोगों को खोजिये जो बहुत ही घमण्डी थे। (ऊपर दिये गये लोगों के अतिरिक्त)
- क्या आप ऐसे व्यक्ति को भी खोज सकते है जो बहुत ही नम्र था?
‘घमण्ड और नम्रता’ (Pride and humility) is from ‘The Way of Life’, ed. by Rob J. Hyndman
स्वर्गीय भण्डार से प्रबन्ध – 2
एक और उदाहरण हम देखेंगे जो लिखित वचन के विषय में है जिसको भविष्य के लिए रखा गया था और जो आज के समय से सम्बन्धित है।
20वीं शताब्दी के प्रारम्भ होने तक, सम्पूर्ण विश्व का ईसाई समाज एक बात से पूर्णतया सहमत था कि बाईबल परमेश्वर का वचन है। यह विश्वास किया जाता था कि यह ईश्वर का वचन है; और जो मतभेद थे वह बाईबल के अर्थ को समझने पर थे, न कि इसकी प्रमाणिकता पर। लेकिन फिर एक चीज चर्चो में आयी जिसे ‘आधुनिकतावाद’ कहते है और जिसमें यह माना गया कि बाईबल को स्वीकार करना बुद्धिमानी नही है। आपको इस पर प्रश्न करना चाहिये कि – ‘हम बाईबल के किसी एक भाग को स्वीकार करेंगे, लेकिन किसी दूसरे भाग को नही’, और अचानक चर्चो में व्यापक रूप से बाईबल की बहुत अधिक आलोचना हुयी और जिसका अर्थ था कि इस बात को अस्वीकार करना कि सम्पूर्ण बाईबल परमेश्वर का प्रेरित वचन है।
इसका परिणाम यह हुआ कि हमें लोगों को न केवल बाईबल का अर्थ सीखाना शुरू करना पड़ा बल्कि उसकी प्रमाणिकता भी कि बाईबल परमेश्वर का वचन है, सिखानी शुरू करनी पड़ी। इस समस्या को सुधारने का ईश्वर का अपना तरीका था। और 20वीं शताब्दी की इस समस्या को सुधारने का कार्य ईश्वर ने 2000 वर्षो पहले शुरू किया। उसने अलगाववादी यहूदियों का एक समूह उत्पन्न किया जिन्हें ऐसेनेस (Essenes) कहा गया और पुराने नियम के लेखकों के रूप में जाना गया। उसके बाद ऐसेनेस को सताया गया इसलिए उन्होंने अपने लेखों को मिट्टी के बरतनों में रखकर पूर्वी यहूदा की गुफाओं में छिपाना पड़ा और यह सब ईश्वर की इच्छा से हुआ। ईश्वर ने 2000 वर्षो तक गुफाओं में छिपे इन लेखों को किसी को नही दिया। ईश्वर ने इन लेखों को मिट्टी के इन बरतनों में तब तक सुरक्षित रखा जब तक कि इन पर प्रश्न किये जाने का समय नही आया।
1947 में ईश्वर ने इसकी व्यवस्था की, और 1950 के आरम्भ में मृत सागर के लेखों के रूप में इनकी खोज की गयी। एक चरवाहा लड़का पानी में पत्थर फेंक कर अपना समय व्यतीत कर रहा था। अचानक उसने पत्थर के किसी चीज से टकराने की आवाज सुनी, और उस चीज को देखने के लिए उसने उसे बाहर निकाला और इस प्रकार परमेश्वर के वचन के वे पहले लेख पाये गये, जिनको 2000 वर्ष पूर्व ईश्वर ने सुरक्षित रूप से रखा था कि एक निश्चित समय पर ये मनुष्य को मिलें और वह इनको देखें।
इन लेखों में यशायाह की भाविष्यवाणियां और बाईबल के अन्य दूसरे बहुत से भाग थे, जिनसे यह बात निश्चित हो गयी कि बाईबल के वचन सत्य है, इनको बदला नही गया था, और न ही इनमें कोई परिवर्तन किया गया था।
मृत सागर के लेखों की इस खोज से ‘आधुनिकतावाद’ को एक बड़ा आघात लगा। और जो लोग ईश्वर में विश्वास करना चाहते थे और ईश्वर और उसके वचन को खोज रहे थे, उन लोगों के लिए यह एक बहुत बड़ा प्रोत्साहन था। इन लेखों के मिलने से उनके विश्वास का सत्यापन हुआ। हम जो विश्वास करते है इससे हमारे विश्वास को भी सामर्थ मिली। एक प्यार करने वाले पिता ने यह सब 2000 वर्षो पहले तैयार किया था।
वास्तव में हम मृत सागर के लेखों पर निर्भर नही है। लेकिन ईश्वर ने हमारे विश्वास को मजबूत करने और हमें उत्साहित करने के लिए यह सब चीजें दी। इसलिए 50 पीढ़ियों तक, 20 शताब्दियों तक, ईश्वर का वचन उन मिट्टी के बरतनों में ईश्वर के सही समय की प्रतिक्षा करता रहा। इसलिए आज हमारे पास ईश्वर का वचन है – जो ईश्वर के स्वर्गीय भण्डार से हमें मिला एक सबसे मूल्यवान उपहार है।
प्यारे भाईयों और बहनों मेरा आपसे निवेदन है कि आप एक अच्छी बाईबल और सन्दर्भ पुस्तक और बाईबल से सम्बन्धित अच्छी सामग्री अपने पास रखें। कभी –कभी लोग एक अच्छी बाईबल की कीमत के विषय में शिकायत करते है कि ये बहुत ही मंहगी है, लेकिन हममें से अधिकांश लोग कुछ रूपये किसी सस्ते संस्करण पर खर्च करने में समर्थ है जिससे हमें बहुत ही लाभ होगा। हममें से अधिकांश लोग इस समय जो कपड़े पहने है वे भी लगभग बाईबल के मूल्य से दूगने मूल्य के होंगे। मैं जानता हूं कि यदि हम सब आने वाले दो या तीन सालों तक कोई कपड़े ना खरीदे तो भी हमारे पास इतने कपड़ें है कि हम सार्वजनिक नैतिकता और ईश्वरीय सिद्धान्तों के अनुसार अपने को ढापने के लिए कपडों का प्रबन्ध कर सकते है और वह पैसा हम एक अच्छी बाईबल, एक अच्छे शब्दकोष और दूसरी सम्बन्धित अच्छी पुस्तकों पर खर्च करके अपने और दूसरों के विचारों को अच्छे कपड़े पहना सकते है।
हमारी प्राथमिकता क्या है? यशायाह 55 में भविष्यद्वक्ता कहता है कि “तुम अस्थायी चीजों पर क्यों अधिक धन खर्च करते हो?” वह हमें ईश्वर के निकट आने के लिए आमंत्रित करता है, पद 1-3, और वह हमें ‘अटल करूणा’ देगा। यदि हम अपना धन, अपना समय और अपनी मेहनत आत्मिक चीजों के लिए खर्च करते है तो ईश्वर हमारे साथ सदा की वाचा बांधेगा, एक ऐसी वाचा जो हमें सदा सर्वदा के लिए ढाके रहेगी, और वह वाचा कभी पुरानी नही होगी और न ही कभी फटेगी।
ईश्वर के पास और क्या है जो वह हमें दे सकता है? नीतिवचन की पुस्तक में हम पढ़ते है:
“यहोवा ने मुझे (बुद्धि को –पद 1) काम करने के आरम्भ में वरन् अपने प्राचीनकाल के कामों से भी पहले उत्पन्न किया।” (नीतिवचन 8:22)
र्इश्वर अपने स्वर्गीय भण्डार से बुद्धि देता है, और याकूब बताता है कि यदि हमें बुद्धि की आवश्यकता है और हम ईश्वर से इसे मांगते है तो ईश्वर इसे हमें देगा। क्या हम सब को इसकी आवश्यकता नही है?
“तुम में से किसी को बुद्धि की घटी हो तो परमेश्वर से माँगे, जो बिना उलाहना दिए सब को उदारता से देता है, और उसको दी जाएगी।” (याकूब 1:5)
ईश्वर उदार है – हम जानते है कि पवित्र शास्त्र को छापने के लिए जो पैसा चाहिये उसके लिए धार्मिक निवेदन किया जाता है, और “ईश्वर हर्ष से देने वाले से प्रेम रखता है” (2 कुरिन्थियों 9:7) और ईश्वर ऐसा इसलिए करता है क्योंकि वह स्वंय हर्ष से देने वाला है। ईश्वर हर्ष से देता है। वह उदार है, वह दानी है। जो उससे मांगते है वह उन्हें उदारता से देता है। लेकिन याकूब इस विषय में एक चेतावनी देता है। तो क्या आप वास्तव में विश्वास करते है कि आपको ज्ञान की आवश्यकता है?
“विश्वास से माँगे, और कुछ सन्देह न करे, क्योंकि सन्देह करनेवाला समुद्र की लहर के समान है जो हवा से बहती और उछलती है।” (याकूब 1:6)
क्या आप को विश्वास है कि वास्तव में आप ईश्वरीय ज्ञान चाहते है? ईश्वरीय ज्ञान का दृष्टिकोण मानवीय ज्ञान के दृष्टिकोण के समान नही है। मनुष्यों का ज्ञान ईश्वर के निकट मूर्खता है। और यदि हम दिव्य ज्ञान माँगते है और ईश्वर हमें वह दिव्य ज्ञान देता है तो इसका अर्थ होगा कि जितनी बुद्धि हम सोचते है कि हमारे लिए महत्वपूर्ण है उससे कही अधिक व्यर्थ कर देना।
ईश्वर हमें ज्ञान देगा लेकिन ऐसा नही है कि वह चमत्कारिक रूप से इसे हमारे मस्तिष्क में प्रवेश कर देता है। ज्ञान देने के लिए भी ईश्वर के पास बहुत से तरीके है। ईश्वर ने अपने लोगों का नेतृत्व करने के लिए मूसा को वह ज्ञान दिया जिस ज्ञान की उसे आवश्यकता थी लेकिन यह कार्य ईश्वर ने विभिन्न तरह से किया। ज्ञान की यह शिक्षा मूसा को ईश्वर ने बहुत सी आश्चर्यजनक घटनाओं के द्वारा दी। जैसे फिरौन की बेटी का नहाने के लिए जाना- यह उसके शरीर की दुर्गन्ध नही थी जो उसको वहां ले गयी बल्कि ऐसा ईश्वर के द्वारा किया गया ताकि मूसा आवश्यक शिक्षा पा सके।
इसलिए ईश्वर हमें विभिन्न तरीको से बुद्धि देता है। ईश्वर जो ज्ञान देता है वह सांसारिक ज्ञान नही है बल्कि वह ज्ञान है जो ऊपर से मिलता है। याकूब इन दोनों प्रकार के ज्ञानों के विषय में हमें बताता है:
“यह ज्ञान वह नहीं जो ऊपर से उतरता है, वरन सांसारिक, और शारीरिक, और शैतानी है।” (याकूब 3:15)
यदि हम इस जीवन की बातों में शिक्षित है तो उससे घमण्ड पैदा होता है और यह घमण्ड झगडें को जन्म देता है। पौलुस भी ईश्वर के ज्ञान के सामने, जिसके द्वारा हम प्रभु यीशु मसीह को प्राप्त करते है, इस दुनिया के ज्ञान को कूड़ा बताता है (फिलिप्पियों 3:8)।
वह ज्ञान जो ईश्वर हमें देता है:
“पर जो ज्ञान ऊपर से आता है वह पहले तो पवित्र होता है फिर मिलनसार, कोमल और मृदुभाव और दया और अच्छे फलों से लदा हुआ और पक्षपात और कपट रहित होता है।” (याकूब 3:17)
यदि हम अपने आप को बुद्धिमान सोचते है तो हमें अपने आप को जांचना चाहिये – यह नही कि हम कितने ज्ञानी है – बल्कि यह कि हमारे विचार कितने शुद्ध है, हम कितने शान्तिप्रिय है, हम कितने भले है और हम कितने साधारण है? क्या दूसरों के साथ हमारा व्यवहार दयालु है? क्या हम बिना मुँह देखें सबके साथ एक सा अच्छा व्यवहार करते है? और ये वही बातें है जो परमेश्वर का ज्ञान हमें सिखाता है। यदि हम इस ज्ञान को खोजते है तो ईश्वर बड़ी उदारता से अपने भण्डार से इसे हमें देता है।
ईश्वर के स्वर्गीय भण्डार से हमें उसका वचन मिला है और उस वचन के द्वारा और हमारे जीवन में उसके कार्यो के द्वारा हमें ज्ञान की प्राप्ति होती है। वह ज्ञान जो हमें ऊपर से मिलता है। और जब हम इस बात को जान लेते है कि सच्चा ज्ञान क्या है तो हम यह भी जान लेते है कि हम मनुष्य कितने आशा रहित है। हम जान लेंगे कि हमें अभी और दूसरी चीजों की आवश्यकता है।
परमेश्वर के वचन को पढ़कर, और अपने व्यर्थ के ज्ञान और ईश्वर के दिव्य ज्ञान के बीच के उस अन्तर को देखकर, हम जान लेंगे कि ईश्वर स्वर्ग में है और हम पृथ्वी पर है- ईश्वर और हमारे बीच में एक विशाल खाड़ी है। हमारी मूर्खता और हमारे पापों के कारण हम अपने ईश्वर से अलग हो गये है। हम उसको खोजेंगे, और उसके स्वर्गीय भण्डार से कुछ ऐसी अतिआवश्यक चीज मागेंगे जो उसके पास है।
“हे याह, यदि तू अधर्म के कामों का लेखा ले, तो हे प्रभु, कौन खड़ा रह सकेगा? परन्तु तू क्षमा करनेवाला है, जिससे तेरा भय माना जाए।” (भजन संहिता 130:3-4)
भरपूर संग्रह – ईश्वर के पास क्षमा का भरपूर भण्डार है। लेकिन आपको मांगना पडेगा। आपको खोजना पडेगा। आपको उसकी कृपा के दरवाजे को खटखटाना पड़ेगा। कितने स्नेह से वह हमें दिन प्रतिदिन देता है।
“यहोवा दयालु और अनुग्रहकारी, विलम्ब से कोप करनेवाला और अति करूणामय है... जैसे आकाश पृथ्वी के ऊपर ऊँचा है, वैसे ही उसकी करूणा उसके डरवैयों के ऊपर प्रबल है।” (भजन संहिता 103:8-11)
हमारे और ईश्वर के बीच में एक बहुत बड़ी खाड़ी है तो भी वह क्षमा करेगा।
अधिकाशंतया हम भौतिक चीजों के विषय में अधिक चिन्तित रहते है और हमें ईश्वर के उस प्रबन्ध के विषय में विचार करना चाहिए कि वह हमारे खाने और पहनने का प्रबन्ध करता है। हम जानते है कि हमें इन चीजों की आवश्यकता है लेकिन तो भी ये अतिआवश्यक चीजें नही है। यीशु मसीह ने मसीह ने कहा कि,
“इसलिए पहले तुम परमेश्वर के राज्य और उसके धर्म की खोज करो तो ये सब वस्तुएँ भी तुम्हें मिल जाएँगी।” (मत्ती 6:33)
स्वर्गीय भण्डार से जो आपको खोजना है, जो आप चाहते है कि पिता आपको दे, वह उसका वचन है, उसका ज्ञान है, और उसकी क्षमा है। वास्तव में ये सब हमारी आवश्यकता है और हमारी इच्छा है, और ये वही चीजें है जिन्हें वह हमें उदारता से देता है।
और इसलिए हमारे पास मसीह यीशु में, हमारी वास्तविक और अनन्त आवश्यकताओं के लिए, एक महिमामय प्रबन्ध है, और यह आवश्यकता ‘परमेश्वर का वचन’ और ‘परमेश्वर का ज्ञान’ है, जिसके द्वारा हमें पापों की क्षमा मिलती है जिसकी हमें अति आवश्यकता है। और भौतिक चीजें जो हमें ईश्वर से मिलती है, जिनके विषय में हम हर दिन सोचते है, और जो अस्थायी है, उन चीजों को वास्तव में अपने जीवन में दूसरे स्थान पर रखना चाहिये।
ईश्वर के पास और भी दूसरी आत्मिक चीजें है जिनके विषय में हमनें बातें नही की है। ये आत्मा के फल है जिनके विषय में हम गलातियों 5:22-24 में पढ़ते है। ये आत्मा के है और इसलिए परमेश्वर की ओर से है क्योंकि परमेश्वर आत्मा है। और इसलिए यदि हम खोजेंगे तो हम "प्रेम, आनन्द, शान्ति, धीरज, कृपा, भलाई, विश्वास, नम्रता और संयम ...पायेंगे।"
यदि हम इतने नम्र नही है जितना हमें होना चाहिये – तो आओ हम इसे ईश्वर से मांगे। यदि हम इतने विश्वासी नही है जितना हमें होना चाहिये – तो आओ हम इसे ईश्वर से मांगे। यदि हम इतने धीरजवन्त नही है – जितना हमें होना चाहिये तो आओ हम इसे ईश्वर से मांगे।
अब जब हम ये सब मांगने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते है तो ऐसा नही है कि हम इन्तजार करें कि अपार धीरज हमें तुरन्त मिल जायेगा। ऐसा नही है। इसका अर्थ है कि हम मांगते है और चाहते है कि हम और अधिक धीरजवन्त हो जाये। इसका अर्थ है कि हम उसके वचन में और अधिक विश्वासी होना चाहते है और तब ईश्वर इसको हमें देगा। यह पलक झपकते ही किसी चमत्कार की तरह से नही होगा कि हम तुरन्त ही एक असीम धीरज वाले व्यक्ति बन जायेंगे। ईश्वर अपने तरीके से कार्य करता है। प्रत्येक दिन जब ईश्वर हमें कष्ट देने के लिए कोई छोटी सी चीज हमारे जीवन में करता है तो वह हमें इसके द्वारा धीरज, दया, और प्रेम सीखा रहा होता है।
विलियम लॉ ने कहा कि यदि हम एक ओर तो इस बात के लिए प्रार्थना करते है कि हमारा विश्वास इतना मजबूत हो कि जब हम जीवन के कठिन समय में हो तो भी हम अपने आप को विश्वासयोग्य बनाये रख सके यहां तक कि मृत्यु तक विश्वासयोग्य रह सके और दूसरी ओर हम हर एक छोटी सी परेशानी से कुडकुडाने लगते है तो ऐसा करके हम अपने आप को धोखा दे रहे है। (विलियम लॉ: ‘A Serious Call to a Devout and Holy Life’ – 1728)
इन दिन प्रतिदिन की छोटी-छोटी परेशानियों द्वारा ईश्वर हमें वह सिखाता है जिसकी हमें आवश्यकता है जैसे धैर्य, दया, या अन्य जिनकी हमें आवश्यकता है। और जब हम इन दिन प्रतिदिन की छोटी-छोटी परेशानियों से बचना चाहते है और अपने जीवन को ईश्वर के प्रति समर्पित करना चाहते है तो हमें सावधान रहने की जरूरत है कही ऐसा ना हो कि हम अनजाने में ईश्वर के विरोध में हो जाये।
यीशु मसीह के आने पर र्इश्वर के स्वर्गीय भण्डार से जो सबसे बड़ा उपहार हमें दिया जायेगा वह उपहार है अमरता और सिद्धता। यह उपहार ईश्वर के पास उसके स्वर्गीय भण्डार में है और प्रभु यीशु मसीह वापिस आयेंगे और ईश्वर के स्वर्गीय भण्डार से यह उपहार उन लोगों को देने के लिए लायेंगे जो इसको र्इमानदारी और सच्चाई से ढूंढते है। (रोमियों 2:7)
हमें भौतिक वस्तुऐं भी चाहिये और इसलिए यीशु मसीह ने प्रभु की प्रार्थना में जो शब्द कहें कि, "हमारी दिन भर की रोटी आज हमें दें", यह हमारी दिन प्रतिदिन की भौतिक आवश्यकताओं और उसके साथ ही उसके प्रतिदिन के वचन की आवश्यकता को ध्यान में रखकर ही कहे। हां, हमें इन चीजों की आवश्यकता है, लेकिन ये आपने आप में महत्वपूर्ण चीजें नही है। ये हमें दी जाती है, हम जीवित रहने के लिए इन साधनों के लिए प्रार्थना कर सकते है, लेकिन ये वे चीजें नही जिनके पीछे हमें दौड़ना है या जिनकी खोज में हमें लगे रहना है।
सभोपदेशक हमें इस विषय में बहुत अच्छी तरह बताता है कि:
"मनुष्य के लिए खाने-पीने और परिश्रम करते हुए अपने जीव को सुखी रखने के सिवाय और कुछ भी अच्छा नही।" (सभोपदेशक 2:24)
हम काम करते है, हमें खाना और कपड़े दिये जाते है – इसलिए उनकोउपयोग करो – उनका आनन्द लो, लेकिन उनको इकट्ठा न करो, यह न कहो कि, "मुझे और चाहिए, और चाहिए, और चाहिए, क्योंकि यह मेरे लिये अच्छा है"। नही, सभोपदेशक का कहने का अर्थ यह है कि, जो भी हम इस जीवन में करते है, जो भी चीजें हम अपने लिए रखते है, वे किसी काम की नही है। जो हम करते है उसका कोई लाभ नही – यह काम कोई और भी कर सकता है – ईश्वर इसे हमारे बिना भी कर सकता है। महत्वपूर्ण यह है कि; इन सब कामों के करने का हम पर क्या प्रभाव होता है?
कुछ सालों पहले मैनें यह बात एक नवयुवकों के समूह को प्रदर्शित करने की कोशिश की। मंच पर दर्जनों कीचड़ लगी ईटों का ढेर था। मैनें चार लोगों से इन ईटों को हटाने के लिए कहा। उसके बाद मैनें उनको वापिस मंच पर रखने के लिए कहा। यह करने के बाद मैने उनसे पूछा कि ऐसा करने से क्या लाभ हुआ? क्या बदलाव हुआ? बहुतों ने उत्तर दिया कि "कुछ नही" – लेकिन किसी एक ने उत्तर दिया "उनके हाथ गन्दे हो गये है!" और ऐसा ही हुआ था! और उनके चेहरो पर पसीना था, और कुछ का चेहरा भी गन्दा था, और यदि वे यह काम लम्बे समय के लिए करें, या अक्सर करें तो वे स्वस्थ रहेंगे!
हमारे दैनिक जीवन में – यह महत्वपूर्ण नही है कि हमने क्या प्राप्त किया – पर यह महत्वपूर्ण है कि उससे हम पर क्या प्रभाव पड़ा। क्या यह हमें ज्ञान, शान्ति, आनन्द और वे सब उपहार दे रहा है जिनकी हम वास्तव में स्वर्गीय भण्डार से खोज कर रहे है?
"मैनें अपना मन लगाया कि जो कुछ सूर्य के नीचे किया जाता है, उसका भेद बुद्धि से सोच सोचकर मालूम करूँ; यह बड़े दु:ख का काम है जो परमेश्वर ने मनुष्यों के लिए ठहराया है कि वे उस में लगें।" (सभोपदेशक 1:13)
जी हां, जीवन एक आत्मिक व्ययामशाला है, जिससे कि हम अनन्तता के लिए ईश्वरीय प्रकृति को धारण करने के योग्य हो जाये। इसलिए हम कठिन काम कर रहे है और व्ययाम कर रहे है, और दिन प्रतिदिन ईश्वर हमारे जीवन में वे आत्मिक व्ययाम हमें देता है जिनकी योग्य बनने के लिए हमें आवश्यकता है। इसलिए यह दु:ख का काम उसने हमें दिया है, हालांकि हो सकता है कि इसका हमारे आसपास के माहौल पर कोई सीधा प्रभाव न हो। वास्तव में, जैसा कि बॉब ल्योड ने एक बार कहा, "हम में से अधिकांश लोगों का जीवन इस तरह से होता है जैसे नीआगरा के झरने के ऊपर से यदि एक गेलेन पानी अधिक बह जाये तो उसकी आवाज में कोई फर्क नही पड़ता है" (आर. जे. ल्योड "अभी जीवित रहे! सदा जीवित रहे!" – 1980)।
सभोपदेशक में आगे हम पढ़ते है कि:
"यह भी परमेश्वर का दान है कि मनुष्य खाए-पीए और अपने सब परिश्रम में सुखी रहे।" (सभोपदेशक 3:13)
और फिर यह भी कि:
"सुन जो भली बात मैनें देखी है, वरन् जो उचित है, वह यह कि मनुष्य खाए और पीए और अपने परिश्रम से जो वह धरती पर करता है, अपनी सारी आयु भर जो परमेश्वर ने उसे दी है, सुखी रहे; क्योंकि उसका भाग यही है।" (सभोपदेशक 5:18-19)
हममें से अधिकांश प्रत्येक दिन उन भौतिक वस्तुओं के लिए सघंर्ष करते है जिन्हें ये मानवीय समाज बहुत ही अधिक महत्व देता है तो ऐसे में पौलुस के तिमुथि को कहे गये ये शब्द हमें चौंकाते है कि:
"यदि हमारे पास खाने और पहिनने को हो, तो इन्हीं पर सन्तोष करना चाहिए। पर जो धनी होना चाहते हैं, वे ऐसी परीक्षा और फंदे और बहुत सी व्यर्थ और हानिकारक लालसाओं में फँसते हैं, जो मनुष्यों को बिगाड़ देती हैं और विनाश के समुद्र में डुबा देती हैं।" (1 तीमुथियुस 6:8-9)
पौलुस कहता है कि यदि हमारे पास खाना और कपड़े है तो हमें सन्तोष करना चाहिए; और हम सन्तुष्ट नही है! पौलुस घर के विषय में नही बताता, यह आवश्यक नही है कि आपके सिर पर छत हो। केवल खाना और कपड़े ही आवश्यक है। ये वही दो चीजें है जिनके विषय में यीशु मसीह भी मत्ती 6:33 में बताते है। यीशु कहते है कि, "ये सब वस्तुएँ तुम्हें मिल जाएँगी", लेकिन इससे आगे का पद हमें बताता है कि "ये वस्तुएँ" क्या है – खाना और कपड़े।
अधिक चीजें होना पाप नही है! लेकिन हममें लालच और अधिक पाने की भूख नही होनी चाहिये बल्कि सन्तोष रखना चाहिए। यदि आपके पास कुछ चीज नही है और आप उसके लिए असन्तोष महसूस करते है और इसके कारण आपका मन अशान्त है, तो इसका मतलब है कि आपके साथ कुछ समस्या है; सन्तोष ईश्वर के निकट रहने से मिलता है:
"सन्तोष सहित भक्ति बड़ी कमाई है।" (1 तीमुथियुस 6:6)
अत: हमें एक दृष्टिकोण मिल गया है – एक ऐसा दृष्टिकोण जो इस संसार की झूठी धार्मिक प्रणाली में जो हम बार-बार पढ़ते है, उसके बिल्कुल विरूद्ध है और विशेषकर, कहने में दु:ख होता है, कि कुछ भटके हुए मसीही समाज में भी ऐसा है। मसीही पत्रिकाऐं कहानियों से भरी होती है –
"मैंने प्रभु को 100 रूपये दान दिए और उसने मुझे आशीष दी और मेरे मासिक वेतन में 1000 रूपये की वृद्धि हो गयी। और इसलिए मैंने 2000 रूपये दिये और मुझे एक वर्ष में 50000 रूपये की अतिरिक्त आमदनी वाली एक नौकरी मिल गयी!"
"मुझे अपने व्यवसाय में केवल 1000 रूपये का लाभ हुआ इसलिए मैंने 500 रूपये प्रभु को दान कर दिए, और उसने मुझे आशीष दी और अगले वर्ष मुझे 50,000 रूपये का लाभ हुआ। इसलिए मैंने 5000 रूपये प्रभु को दान किये और उसने मुझे आशीष दी और उससे अगले वर्ष मुझे 500,000 रूपये का लाभ हुआ। इस वर्ष हमनें 10,000 रूपये प्रभु को दिये और हमें 300,0000 रूपये के लाभ की आशा है।"
वे सोचते है कि यह आशीष है – बहुत धन का मतलब है आशीष। ऐसा हो भी सकता है, और ऐसा नही भी हो सकता है। हम सोचते है कि ऐसो आराम का जीवन इस बात का प्रमाण है कि हम ईश्वर के द्वारा आशिषित है। पौलुस का जीवन, यीशु का जीवन, इब्रानियों के 11 अध्याय में विश्वासियों का जीवन, इन सब बातों को अर्थहीन कर देते है। गरीबी का अर्थ पवित्रता नही है। लेकिन ईश्वर भक्त व्यक्ति धनरहित हो सकता है। "खाना और कपड़े होना" – हो सकता है कि ईश्वर आपको इससे अधिक वे सब भौतिक चीजें ना दें जिनके विषय में आप चिन्ता करते है लेकिन वह आपको आत्मिक चीजें अवश्य देगा – "विश्वास, आशा, प्रेम, आनन्द, शान्ति, ..."
जो चीज ईश्वर के राज्य में प्रवेश करने में हमारी सहायता करती है वह एक आशीष है और जो कुछ भी हमारे प्रवेश करने में रूकावट है वह श्राप है। इसमें कोई सन्देह नही है कि हम सब के लिए भौतिक वस्तुऐं रूकावट है।
"धनवान का स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना कठिन है।" (मत्ती 19:23)
इसलिए हम प्रभु यीशु मसीह का अनुसरण करते है – जिसके पास सिर छिपाने की जगह नही थी, और जहां तक मैं सोचता हूँ उसका कोई घर नही था, कोई जमीन नही थी, कोई खेत नही था, लेकिन तो भी वह सब मनुष्यों से अधिक अपने पिता (ईश्वर)के निकट थे, और सबसे अधिक आशीषित थे।
भजन संहिता के 37 अध्याय में हमारी दैनिक आवश्यकताओं के विषय में, जो हम ईश्वर से चाहते है, एक बहुत ही अच्छा विचार है।
"मनुष्य की गति यहोवा की ओर से दृढ़ होती है, और उसके चलन से वह प्रसन्न रहता है; चाहे वह गिरे तौभी पड़ा न रह जाएगा, क्योंकि यहोवा उसका हाथ थामे रहता है... वह तो दिन भर अनुग्रह कर करके ॠण देता है, और उसके वंश पर आशीष फलती रहती है।" (भजन संहिता 37:23-24, 26)
यहां बहुत से अच्छे विचार है लेकिन हम पद 26 में दिये गये एक शब्द "ॠण" पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहते है। इसका शब्दिक अर्थ है 'शामिल होना – साथ में कार्य करना'। जब हम ॠण देते है तो हम लोगों के साथ जिम्मेदारियां बाटंने में शामिल होते है। हम उनकी जिम्मेदारियों में उनकी सहायता करते हुए कार्य करते है। अब जब ईश्वर हमें ॠण देता है तो वह हमारे साथ कार्य करने में हमारे साथ शमिल होता है, और हमारे जीवन की दैनिक आवश्यकताओं के बोझ को बांटता हैं
"तू भूमि की सुधि लेकर उसको सींचता है, तू उसको बहुत फलदायक करता है; परमेश्वर की नदी जल से भरी रहती है; तू पृथ्वी को तैयार करके मनुष्यों के लिए अन्न को तैयार करता है।... अपनी भलाई से भरे हुए वर्ष पर तू ने मानो मुकुट रख दिया है; तेरे मार्गो में उत्तम उत्तम पदार्थ पाए जाते हैं। जंगल की चराइयों में हरियाली फूट पड़ती है; और पहाड़ियाँ हर्ष का फेंटा बाँधे हुए हैं। चराइयाँ भेड़-बकरियों से भरी हुई हैं, और तराइयाँ अन्न से ढँपी हुई हैं, वे जयजयकार करतीं और गाती भी है।" (भजन संहिता 65:9-13)
क्या हम इस बात को मानते है कि सब कुछ ईश्वर की ओर है? वह इस पृथ्वी के सम्पूर्ण फलों का स्वामी है। क्या हम इस बात के लिए पृथ्वी और स्वर्ग के उस ईश्वर की प्रशन्नसा करते है कि वह हमारी सहायता के लिए और हमारे दैनिक जीवन के बोझ को बांटने के लिए, हमारे साथ कार्य करने के लिए तैयार रहता है; और यदि हम ऐसा करते है तो तब हमें किसी बात के लिए डरने की आवश्यकता नही है; क्योंकि स्वर्ग और पृथ्वी का ईश्वर हमारे प्रत्येक दिन के बोझ को बाटंने के लिए हमारे साथ हैं। हम उसके राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज करें और ईश्वर हमारे साथ, हमारी प्रत्येक जिम्मेदारी में कार्य करने के लिए हमारे साथ होगा, चाहे वह छोटी जिम्मेदार हो या बड़ी, और अपने दैनिक प्रबन्ध के द्वारा वह हमारी आवश्यकताओं को पूरा करेंगा क्योंकि वह सबको "प्रसन्नता और उदारता" से देता है।
‘स्वर्गीय भण्डार से प्रबन्ध – 2’ (Provisions from a Heavenly Store – 2) is from ‘Caution! God at work’, by Tim Galbraith
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